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धर्मामृत ( सागार) हिंस्रः-द्रव्यहिंसाशीलत्वात् । भावहिंसायास्तु मांसभक्षणे दर्पकरत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । यदाह
'यतो मांसाशिनः पुंसो दमो दानं दयार्द्रता। सत्यशौचव्रताचारा न स्युर्विद्यादयोऽपि च ॥ [
] पक्वापक्वाः-पक्वाश्च अपक्वाश्च पक्वापक्वाश्चेति विगृह्मैकशेषेण पक्वापक्वा इत्यस्य लोपः । तेन पच्यमाना इत्येव संगृहीतम् । तत्पेश्य:--मांसग्रन्थयः । निगोतीघसुतः-अनन्तकायिकसङ्घातान् सुवन्ति ६ जनयन्तीत्यर्थः। उक्तं च
'आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीसु। सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगीतानाम् ।। आमां वा पक्वां वा खादति वा स्पृशति वा पिशितपेशीम् ।
स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥ [ पुरुषार्थ. ६७-६८ ] ॥७॥
अथ मांसस्य प्राणिहिंसाप्रभवत्वेनेन्द्रियदर्पकरत्वेन च द्रव्यभावहिंसा-हेतुत्वानुवादपुरस्सरं तद्भक्षणं १२ नरकादिगतिविवर्तननिमित्तत्वेनोपदिशन्नाह
विशेषार्थ-पुरुषार्थ सिद्धथुपायमें कहा है-स्वयं मरे हुए भैंसा, बैल आदिका जो मांस होता है उसमें भी हिंसा होती है, क्योंकि उस मांसके आश्रयसे जो निगोदिया जीव उत्पन्न होते हैं उनका तो घात होता ही है । कच्ची, पकी हुई तथा पकती हुई मांसकी डलियोंमें उसी जातिके निगोदिया जीव सतत उत्पन्न होते रहते हैं। अतः जो कच्ची या पकी हुई मांसकी डलीको खाता है अथवा छूता है वह निरन्तर एकत्र होनेवाले बहुत-से जीवोंके समूहको मारता है। आचार्य अमृत चन्द्रने जो बात तीन श्लोकोंमें कही है, आशाधरजीने उसे एक ही इलोकके द्वारा कह दिया है। आचार्य अमृतचन्द्रसे भी पहले आचार्य हरिभद्रने अपने सम्बोधे प्रकरणमें प्राकृत गाथामें भी यही बात कही है कि मांसकी कच्ची या पकी हुई डलियोंमें निगोदिया जीव सतत उत्पन्न होते रहते हैं और उनका घात अवश्य होता है ॥७॥
इसपर-से यह कहा जा सकता है कि निगोदिया जीवोंका घात तो सप्रतिष्ठित वनस्पतिके खानेसे भी होता है तब उसमें और मांस-भक्षणमें कोई भेद नहीं रहा। इस आपत्तिको दूर करनेके लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि मांस पंचेन्द्रिय प्राणीकी हिंसासे प्राप्त होता है तथा उसके भक्षणसे इन्द्रियमद विशेष होता है अतः वह भावहिंसाका कारण होनेसे नरकादि गतिका कारण होता है
१. 'यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः ।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥ आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातव्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ।। आमा वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशित पेशीम् ।
स निहन्ति सततनिचित पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥'-पुरुषार्थ., ६६-६८ श्लो. । २. 'आमासु अ पक्कासु विपच्चमाणासु मांसपेसेसु ।
सययं चिय उववाओ भणिओ निगोय जीवाणं' ॥-संबोध प्रकरण, ६७५ ।
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