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________________ ४९ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय ) गव्येनेति मांसेन केचित् सम्बध्नन्ति । वार्षीणसो जरच्छागः, यस्य पिवतो जलं त्रीणि स्पृशन्ति जिह्वा कर्णौ च । यदाह 'त्रि पिवन्त्विन्द्रियक्षिणं (?) श्वेतं वृद्धमजापतिम् । वार्षीणसं तु तं प्राहुर्याज्ञिकाः पितृकर्मसु ॥' इति । [ एतेनेदमपि शाक्यवाक्यं प्रत्युक्तम् 'मांसस्य मरणं नास्ति नास्ति मांसस्य वेदना । वेदनामरणाभावात् को दोषो मांसभक्षणे ॥' इति । [ मृगलावकमूषिकादीन् प्रतिवधबुद्धेनिवारत्वात् । तदुक्तम् 'मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिः शाकिन्य इव दुर्धियः ।।' [ ] ॥६॥ अथ स्वयमेव पञ्चत्वं प्राप्तस्य पञ्चेन्द्रियस्य मत्स्यादेर्भक्षणमदूषणमुत्प्रेक्षमाणान् प्रत्याह हिंस्रः स्वयं मृतस्यापि स्यादश्नन्वा स्पृशन् पलम् । पक्कापक्वाहि तत्पेश्यो निगोतौघसुतः सदा ॥७॥ हैं, यज्ञमें बकरेका बलिदान करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे पितरोंकी तृप्ति होती है, छली देव आप्त है । आगमें हवि डालनेसे देव प्रसन्न होते हैं, वेदके इन व्यर्थ वचनोंकी लीला कौन जानता है।' __इससे स्मृतिका निम्न कथन भी अप्रामाणिक ही सिद्ध होता है। तिल, जौ, धान्य, उड़द, मूल, फल देनेसे पितर एक मास तक तृप्त रहते हैं। मछलीके मांससे दो मास तक, हरिणके मांससे तीन मास तक, मेढेके मांससे चार मास तक, जंगली मुर्गे आदिके मांससे पाँच मास तक, बकरे के मांससे छह मास तक, रुरु मृगके मांससे सात मास तक, ऐण मृगके मांससे आठ मास तक और रौरव मृगके मांससे नौ मास तक, सुअर और भैसेके मांससे दस मास तक और खरगोश तथा कछुवेके मांससे ग्यारह मास तक और श्वेत वृद्ध बकरेके मांससे बारह वर्ष तक पितर तृप्त होते हैं। ___ बौद्धोंका कहना है--सांस तो जड़ है, न वह मरता है, न उसे कष्ट होता है। जब वेदना और मरण दोनों ही नहीं होते तो मांस-भक्षणमें क्या दोष है ? ऐसा माननेसे तो जीवोंको घात करनेकी भावना ही बढ़ती है, उसके बिना जड़ मांस पैदा नहीं होता। कहा हैमांसके स्वादका लोभी प्राणी दूसरे प्राणियोंको मारने में प्रवृत्त होता है। अतः मांस-भक्षण निन्द्य है ।।६।। किन्हींका कहना है कि स्वयं ही मरे हुए पंचेन्द्रिय प्राणीका मांस खाने में कोई दोष नहीं है। उनको लक्ष करके कहते हैं स्वयं मरे हुए भी मच्छ, भैंसा आदिके मांसको खानेवाला और छूनेवाला भी हिंसक है ; क्योंकि उस मांसकी पकी हुई और बिना पकी डलियोंमें सदा निगोदिया जीवोंके समूह उत्पन्न होते रहते हैं ॥७॥ १. गोदौ-मु. सा.-७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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