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________________ धर्मामृत ( सागार ) देवानाममृताहारत्वात् पितॄणां च पुत्रादिवितीर्णेन संबन्धासंभवात् । मांसखादनस्य द्रव्यभावहिंसामयत्वेन दुर्गतिदुःखैकफलकल्मषसम्भारकारणत्वात् । न चैतद् वेदविहितत्वादनवद्यं तद्वाक्यानामप्रामाणिकत्वेन ३ प्रत्ययस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यदाह ९ १२ १५ १८ ४८ 'स्पर्शो मेध्यभुजांगवामघहरो वन्द्या विसंज्ञा द्रुमाः, स्वर्ग - श्वगवदानेति च पितृन् विप्रोपभुक्ताशनम् । आप्ता छद्मपराः सुराः शिखिहुते प्रीणाति देवान् हविः, _ स्फीतं फल्गु च वल्गु च श्रुतिगिरां को वेति लीलायितम् ॥' [ एतेनैषामपि स्मृतिवाक्यानामप्रामाणिकत्वमेव समर्थितं स्यात्'तिलैर्बीहियवैर्मारद्भिर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं प्रीयन्ते विधिवत् पितरो नृणाम् ॥ द्वी मासी मत्स्यमांसेत त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु ॥' [ मनु. ३।२६७-६८ ] औरभेण मेषसम्बन्धिना, शाकुनेन इति आरण्यकुक्कुटादिसंबन्धिन इत्यर्थः । ' षण्मासांरछागमासेन पार्वतेनेह सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवेव तु ॥' [ मनु. ३।२६९ ] पृषतेन - रुरणमृगजाति........ वचनाः । 'दश मांसास्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासेनेकादशैव तु ॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु । वार्षीणसस्यमांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी ॥ [ ] दूसरे जन्म में वह हमे न मारे या मांसके बिना जीवन ही न रह सके तो प्राणी न करने योग्य जीवहत्या भले ही करे । किन्तु ऐसी बात नहीं है, मांस के बिना भी मनुष्योंका जीवन चलता है ।' मनुस्मृतिमें मांस भक्षणका विधान भी मिलता है और विरोध भी । विरोध में लिखा है - जो व्यक्ति पशुको मारनेकी सम्मति देता है, जो पशुवध करता है, जो उसके अंगअंग पृथक करता है, जो मांस बेचता या खरीदता है, जो पकाता है, जो परोसता है, और जो खाता है. ये सभी मारनेके अपराधी हैं- (५/५१) । किन्तु आगे ही लिखा है- 'न मांसभक्षण में दोष है, न मद्यपान में और न मैथुन- सेवनमें । ये तो प्राणियोंकी प्रवृत्तियाँ हैं । किन्तु इनकी निवृत्तिका महाफल है ।' जिनके त्यागका महाफल है उनका सेवन निर्दोष कैसे हो सकता है । यह स्ववचन विरोधा है । ] आगे कहा है- 'खरीदकर या स्वयं उत्पन्न करके या दूसरेसे उत्पन्न कराकर देवता और पितरोंकी पूजापूर्वक जो मांस खाता है वह दोषका भागी नहीं होता ।' देवता तो अमृतपान करते हैं और पुत्रके दानसे मरे हुए पितरोंका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। मांसभक्षण में तो द्रव्यहिंसा, भावहिंसा दोनों होती हैं अतः वह दुर्गतिमें ले जानेवाले पापका ही कारण है । कहा जाता है कि वेदविहित हिंसामें पाप नहीं है । किन्तु इस प्रकारके वचन प्रामाणिक न होनेसे उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता । कहा है- 'ज्ञानहीन वृक्ष पूज्य १. तृप्यन्ति - मनु. | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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