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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) किं च, प्राणिघाताज्जातमामिषमश्नतां हिंसाया अवश्यं भावात् कौतस्कुती पवित्रता स्यात् ? यदाह 'न विना प्राणिविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात्प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥' [पुरुषार्थ. ६२ श्लो. ] तथा 'ये भक्षयन्त्यन्यपलं स्वकीयपलपुष्टये । त एव घातका यन्न वद को भक्षकं विना ॥' [ अपि च 'हन्ता पलस्य विक्रेता संस्कर्ता भक्षकस्तथा । क्रेताऽनुमन्ता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥ अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।' [ मनुस्मृ. ५।५१ ] विशसिता-हतस्याङ्गविभाक्षकं [-विभाजकः] विना । आ गकरः (?) उपहर्ता--परिवेष्टा । ततो १२ दुरन्तनरकनिवासायाणुशोऽपि पिशितस्याशनमामनन्ति । तदाह 'तिलसर्षपमात्रं यो मांसमश्नाति मानवः। स श्वभ्रान्न निवर्तेत यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥' [ तदिदमुन्मत्तभाषितमिव मनोर्वचः 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥' [ मनुस्मृ. ५।५६ ] इति । येषां निवृत्तिर्महाफला तेषां प्रवृत्तिर्न दोषवतीति स्ववचनविरोधाविष्करणात् । 'मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥' [ मनु. ५.५५] इति च पूर्वापरविरोधोक्तिः । तद्वदिदमपि च स्मृतिकाराणां वाक्यं महाविलसितमेव 'क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपहेतमेव वा। देवान् पितृन् समभ्यर्च्य खादन्मांसं न दुष्यति ॥ [ मनु. ५।३२ ] इति । भक्षणमें भी धर्म मानते हैं। वेदके अध्येता वैदिक विद्वानोंने लिखा है कि ऋग्वेदमें देवताओंके लिए बैलका मांस पकानेकी ओर कई संकेत दिये गये हैं। प्राचीन धर्मसूत्रोंमें भोजन एवं यज्ञके लिए जीवहत्याकी व्यवस्था है। बृहदारण्यकोपनिषदें जो बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न करना चाहता है उसके लिए बैल या साँड या किसी अन्य पशुके मांसको चावल और घीमें पकानेका निर्देश है (६।४।१८)। धर्मसूत्रोंमें कुछ पशुओं-पक्षियों एवं मछलियोंके मांस के भक्षणके सम्बन्धमें नियम दिये गये हैं। इन्हींको लक्ष्य करके ग्रन्थकारने उक्त कथन किया प्रतीत होता है । आचार्य सोमदेवने भी लिखा है कि 'मांस स्वभावसे ही अपवित्र है, दुर्गन्धसे भरा है, दूसरोंकी हत्यासे उत्पन्न होता है तथा कसाईके घर जैसे खोटे स्थानसे प्राप्त होता है। ऐसे मांसको भले आदमी कैसे खाते हैं। यदि जिस पशुको हम मांसके लिए मारते हैं १. मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।-मनु. ५।५५ । २. परोपकृतमेव वा । देवान् पितूंश्चार्चयित्वा-मनु. । ३. धर्मशास्त्रका इतिहास, १ भाग, पृ. ४२० आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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