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________________ ३ धर्मामृत ( सागार ) अथाचार विशुद्धिगवितानां पिशिताशनं गईमाणः प्राह 'स्थानेश्नन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचि कश्मलाः। श्वादिलालावदप्यधुः शुचिम्मन्याः कथन्नु तत् ॥६॥ स्थाने-युक्तम् । हेतोः-शुक्रशोणितलक्षणात् कारणात् । स्वतः-स्वभावेन । अशुचिअमेध्यबीजममध्यस्वभावं चेत्यर्थः ।। उक्तं च 'शुक्रशोणितसंभूतं विष्ठारसविवर्धितम् । लोहितं स्त्यानतामाप्तं (?) कौश्लियादक्रिमिः पलम् ।।' [ ] __ अपि च 'भक्षयन्ति पलमस्तचेतनाः सप्तधातुमयदेहसंभवम् । यद्वदन्ति च शुचित्वमात्मनः किं विडम्बनमतः परं बुधाः ।।' [ अमित. श्रा., ५।२२] 'अत्ति यः कृमिकुलाकुलं पलं पूयशोणितवसादिमिश्रितम् । तस्य किंचन न सारमेयतः शुद्धबुद्धिभिरवेक्षतेऽन्तरम् ॥' [ अमि, श्रा. ५।१८] कश्मला:-जातिकुलाचारमलिनाः। श्वादिलालावत्-कुक्कुरचित्रक-श्येनादिमुखस्रावयुक्तं तत्तुल्यं वा । अद्युः-खादेयुः । गर्थेऽत्र सप्तमी । गर्हामहे । अन्यायमेतदित्यर्थः । शुचिमन्याः-आचारविशुद्धमात्मानं मन्यमानाः । उक्तं च 'अहो द्विजातयो धर्म शोच्यमूलं वहन्ति च । सप्तघातकदेहितं (?) मांसमश्नन्ति चाधमाः॥' [ प्राणोंसे हाथ नहीं धोता। और मद्यपायी एकप नामक संन्यासीको तरह अगम्यागमन और अभक्ष्य भक्षण करके दुर्गतिमें भ्रमण करता है। इन दोनोंकी कथाएँ सोमदेवके उपासकाचारमें (पृ. १३०-१३२) वर्णित हैं ।।५॥ आगे आचारविशुद्धिका गर्व करनेवालोंके मांसभक्षणकी निन्दा करते हैं मांस स्वभावसे भी अपवित्र है और कारणसे भी अपवित्र है। ऐसे अपवित्र मांसको जाति और कुलके आचारसे हीन नीच लोग खायें तो उचित हो सकता है। किन्तु अपनेको विशुद्ध आचारवान् माननेवाले कुत्तेकी लारके तुल्य भी उस मांसको कैसे खाते हैं । यही आश्चर्य है ॥६| . विशेषार्थ-स्थूल प्राणीका घात हुए बिना मांस पैदा नहीं होता। और स्थूल प्राणीकी उत्पत्ति माता-पिताके रज और वीर्यसे होती है। अतः मांसका कारण भी अपवित्र है और मांस स्वयं अपवित्र है । उसपर मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, चील-कौए उसे देखकर मँडराते हैं । कसाईखानेको देखना भी कठिन होता है। ऐसे घृणित मांसको आजके सभ्य लोग तो होटलोंमें बैठकर खाते ही है। किन्तु गंगा स्नान करके किसीसे छु जानेके भयसे गीली धोती पहने और हाथमें मांसका झोला लिये आचारवान लोगोंको देखा जा सकता है जो मांस१. 'स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् ॥ -सोम. उपा., २७९ श्लो. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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