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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) अथ मद्यपानस्य द्रव्यभावहिंसानिदानत्वमनूद्य तन्निवृत्तिप्रवृत्तिशीलानां गुणदोषो दृष्टान्तद्वारेण स्पष्टयन्नाह पोते यंत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिलाः __कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावध मुद्यन्ति च । तन्मयं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं चारं चरन्मज्जति ॥५॥ उक्तं च 'समुत्पद्य विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल । मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय देहिनाम् ॥ [ सो. उपा., २७४ श्लो.] भ्रमः-मिथ्याज्ञानं शरीरभ्रमणं च । सावधं-पापेन निन्दया वा सह । उक्तं च 'अभिमानभयजुगुप्सा-हास्यारतिकाम-शोक-कोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च नरकसन्निहिताः ॥ [ पुरुषार्थ., ६४ श्लो. ] व्रतयन् -व्रतं कुर्वन् । अमद्यपकुलजातोऽपि देवादिसाक्षिकं निवर्तयन्नित्यर्थः । तिलपरास्कन्दीव- १२ धूर्तिलनामा चोरो यथा । उक्तं च 'हेतुशुद्धेः श्रुतेर्वाक्यात्पीतमद्यः किलेकपात् । मांस-मातङ्गिकासङ्गमकरोन्मूढमानसः ॥' [सो. उपा., २७७ श्लो. ] ॥५॥ " अब मद्यपानको द्रव्यहिंसा और भावहिंसाका कारण बतलाकर उसको पीनेवालेके दोष और नहीं पीनेवालेके गण दष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं जिस मद्यके पीते ही मद्यके रससे पैदा होनेवाले तथा मद्यमें रस पैदा करनेवाले जीवोंके समूह मद्यपान करते ही तत्काल मर जाते हैं तथा पाप और निन्दाके साथ काम, क्रोध, भय, भ्रम प्रमुख दोष उत्पन्न होते हैं, उस मद्यका व्रत लेनेवाला धूर्तिल नामक चोरकी तरह विपत्तिमें नहीं पड़ता। और उस मद्यको पीनेवाला मनुष्य एकप नामके संन्यासीकी तरह दुराचार करता हुआ दुर्गतिके दुःखमें डूबता है ॥५॥ _ विशेषार्थ-मद्यपानसे मनुष्यका मन आपेमें नहीं रहता। वह मदहोश होकर धर्मको भूल जाता है । और धर्मको भूल जानेपर उसे पाप करते हुए संकोच नहीं होता । इसके साथ ही मद्यमें जीवोंकी उत्पत्ति अवश्य होती है, उनके बिना मद्य तैयार नहीं होता । और मद्यपानसे वे सब मर जाते हैं। इस तरह मद्यपानमें द्रव्यहिंसा तो होती ही है। साथ ही मद्य पीनेसे काम सताता है, स्त्रीके साथ रमण करनेकी इच्छा पैदा होती है । सिर चकराता है। मूच्छित होकर गिर पड़ता है। कुत्ते उसके मुखमें मूत्र कर जाते हैं। चोर वस्त्रादि हर लेते हैं। दुनिया उसपर हँसती है। जिनके कुलमें शराब नहीं पी जाती, उन्हें भी देव-गुरुकी साक्षीपूर्वक मद्यपान न करनेका नियम लेना चाहिए। नियम लेनेवाला धूर्तिल नामक चोरकी तरह १. 'रसजामां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्॥-पुरुषार्थ. ६३ श्लो. । २. सरक-मु.। ३. पुरुषार्थसि. ६२-६४ श्लोक । ४. अमित. श्रा. ५।२-१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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