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धर्मामत ( सागार) __ अथ मद्यस्य जन्तुभूयिष्ठतानुवादपुरस्सरमुपयोक्तृणामुभयलोकबाधकत्वमुपदर्शयन्नवश्यत्याज्यतामभिधत्तेयदीत्यादि
यदेकबिन्दोः प्रचरन्ति जीवा
श्चेत्तत् त्रिलोकीपि पूरयन्ति । यद्विक्लवाश्चेमममुं च लोकं
यस्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत् ॥४॥ उक्तं च
'मद्यैकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् ।
पूरयेयुर्न संदेहः समस्तमपि विष्टपम् ॥' [ सो. उपा., २७५ श्लो.] यद्विक्लवा:-येन मोहितमतयः । इमम्-इह लोकम् । यस्यन्ति-भ्रंशयन्ति, श्रेयोरहितं कुर्वन्तीत्यर्थः । कश्यं-मद्यम् । अस्येत्-त्यजेत् । उक्तं च
'मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाच्च दुर्गतेः ।
मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत् ॥' [ सो. उपा., २७६ श्लो. ] अपि च
'मद्ये मोहो भयं शोकः क्रोधो मृत्युश्च संश्रितः । सोन्मादमदमूीयाः सापस्मारापतानकाः ।। विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा ।
मद्यात्प्रवीयते सर्वं तृण्या वह्निकणादिव ।' [ ]॥४॥ तथा पाँच उदुम्बर फलोंके सातिचार त्यागको अष्ट मूल गुण कहा है। और पं. राजमल्लने अपनी पंचाध्यायीके उत्तरार्धमें आठ मूल गुणोंका कथन करते हुए उनके बारे में जो विशेष कथन किया है वह इस प्रकार है कि 'व्रतधारी गृहस्थोंके आठ मूल गुण होते हैं। कहीं-कहीं अव्रतियोंके भी होते हैं क्योंकि ये सर्वसाधारण हैं। ये आठ मूल गुण स्वभावसे या कुलपरम्परासे चले आते हैं। इनके बिना न सम्यक्त्व होता है और न व्रत । इनके बिना जब जीव नामसे भी श्रावक नहीं हो सकता तब पाक्षिक, नैष्ठिक और साधककी तो बात ही क्या है। जिसने मद्य, मांस और मधुका और पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग कर दिया है वह नामसे श्रावक है। त्याग न करनेपर नामसे भी श्रावक नहीं है।'
इस तरह विविध श्रावकाचारोंमें अष्ट मूल गुणोंके सम्बन्धमें विवेचन मिलता है ।।३।।
अब मद्य में जीवोंकी बहुलता होनेसे उसके सेवन करनेवाले इस लोक और परलोकको नष्ट करते हैं, यह बतलाकर उसको अवश्य छोड़नेका आग्रह करते हैं
जिस मद्यकी एक बदसे यदि उसमें पैदा होनेवाले जन्तु बाहर फैल तो समस्त संसार उनसे भर जाये । तथा जिस मद्यको पीकर उन्मत्त हुए प्राणी अपने इस जन्म और दूसरे जन्मको भी दुःखमय बना लेते हैं, उस मद्यको अवश्य छोड़ना चाहिए ॥४॥ १. 'तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदवतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे ॥ निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणाः स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत् सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ॥ एतावता विनाप्येषः श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको गूढो नैष्ठिकः साधकोऽथवा ।। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चकः । नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही॥
-पञ्चाध्यायी, उत्त. ७२३-७२६ श्लो.।
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