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धर्मामृत ( सागार) इत्यादिकाम् । एतेनेदमुक्तं भवति तत्तादृग्जिनाज्ञाश्रद्धानेनैव मद्यादिविरतिं कुर्वन् देशव्रती स्यात् न कुलधर्मादिबुद्धया । 'च' अनेन नवनीत-रात्रिभुक्यगालितपानीयादिकमनुक्तं समुच्चीयते ॥२॥ अथ स्वमतपरमताभ्यां मूलगुणान् विभजते
अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा।
फलस्थाने स्मरेत् द्यूतं मधुस्थान इहैव वा ॥३॥ एतान्-उपासकाध्ययनादि शास्त्रानुसारिभिरस्माभिः पूर्वमनुष्ठेयतयोपदिष्टान् । उक्तं च यशस्तिलके
'मद्यमांसमधुत्यागाः सहोदुम्बरपञ्चकैः ।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥' [ सो. उपा. २७० श्लो. ) फलस्थाने-पञ्चोदुम्बरफलप्रसङ्गे तन्निवृत्ती वा। मद्यमांसमधु विरति त्रयं पञ्चाणुव्रतानि चाष्टी मूलगुणानीत्यर्थ"
भगवन्तः स्वामिसमन्तभद्रपादाःहै जो जिन वचनोंपर श्रद्धान करके मद्य-मांस आदिका त्याग करता है। मात्र कुल परम्परासे उनका सेवन करने मात्रसे पाक्षिक श्रावक नहीं हो सकता। अतः जैन घरानों में जन्म लेनेवालोंको भी जिनागमके कथनको जानकर और उसपर श्रद्धा रखकर नियमानुसार मद्यादिका त्याग करना चाहिए। केवल न सेवन करनेसे वे व्रती नहीं माने जा सकते। जो मद्यादिका नियमानुसार व्रत लेता है वह फिर कुसंगति में पड़कर भी मद्यादिका सेवन नहीं करता। किन्तु जो अपने घरके कारण मद्यादि का सेवन नहीं करते वे संगति दोषसे उसका सेवन करने लगते हैं। आज यही हो रहा है। होटलोंके खान-पानसे, कुल धर्म बुद्धिसे मद्यमांसका सेवन न करनेवाले भी सेवन करने लगते हैं।
हिंसाके दो प्रकार हैं-भाव हिंसा और द्रव्यहिंसा। मद्यादिके सेवनमें अनुराग होना भावहिंसा है और मद्यपानसे उसमें रहनेवाले जीवोंका घात होना या मांसके लिए जी वध होना द्रव्यहिंसा है। इन दोनों ही प्रकारकी हिंसाको छोड़नेसे ही अहिंसाकी सिद्धि हो सकती है और उसीके लिए सबसे प्रथम यह स्थूल त्याग कराया गया है। क्षीरिफल कहते हैं-बड़, पीपल, पाकर, गूलर और कठूमरके फलोंको। इनमें साक्षात् त्रसजीव पाये जाते हैं । इसीसे गूलरका एक नाम जन्तु फल भी है । अंजीर भी इन्हींकी जातिका है। त्रसहिंसासे बचने के लिए इनका त्याग कराया जाता है ।।२।।
अब ग्रन्थकार अपने तथा अन्य आचार्यों के मतसे मूलगुणोंको कहते हैं
आचार्य मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागको गृहस्थोंके आठ मूलगुण मानते हैं । अथवा पाँच फलोंके त्यागके स्थानमें पाँच स्थूल हिंसा आदिके त्यागको गृहस्थोंके मूलगुण कहते हैं । अथवा मद्य, मांस, मधु तथा पाँच स्थूल हिंसा आदिके त्यागरूप आठ मूल गुणोंमें ही मधुके स्थानमें जुएके त्यागको आठ मूलगुण मानते हैं ॥३॥
विशेषार्थ-आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामीने अपने श्रावकाचारके वर्णनमें मूल गुणका कोई निर्देश नहीं किया। श्वेताम्बर साहित्यमें भी श्रावकके मूलगुणोंकी कोई चर्चा नहीं है। सबसे प्रथम आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें श्रावकके आठ मूलगुण कहे हैं। वे हैं-मद्य, मांस, मधुके त्यागके साथ पाँच अणुव्रत । इन्हींको ग्रन्थकारने 'वा' शब्दसे सूचित किया है। इन्हीं अष्ट मूल गुणोंमें मधुके स्थानमें जुआका १. 'उदुम्बरो जन्तुफलो'-अमरकोष २।४।२२
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