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________________ M . एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) अनुमन्यते-एकदेशविरतिमहं करिष्यामीति प्रतिपद्यमानो गृही सूरिभिरोमित्यनुज्ञायत इत्यर्थः । एतेन स्थावरबधानुमतिदोषानुषङ्गोऽचार्याणां परिहृतो भवति । तथा चोक्तम् 'सर्वविनाशी जीवनसहननं त्याज्यते यतो जैनैः । स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥' [ अमित. श्रा., ६।१८ ] ॥१॥ अथ पाक्षिकस्य निर्मलसम्यक्त्वपूर्वानष्टौ मूलगुणाननुष्ठेयतया प्रतिष्ठापयितुमाह तत्रादौ श्रद्दधज्जैनोमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्पञ्चक्षीरिफलानि च ॥२॥ जैनीमाज्ञाम् 'विकल्पसुखसंतुष्टो विमुखः स्वात्मजे सुखे । गुञ्जान्नितापसन्तुष्टशाखामृगसमो जनः ।।' [ 'मांसाशिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनृशंस्यं न मर्येषु मधूदुम्बरसेविषु ॥' [ सोम. उपा., २९३ श्लो. ] द्वारा गृहस्थ धर्म में ही सन्तुष्ट होकर रह जानेसे ठगा जाता है। अतः ऊपर कहा है कि धर्माचार्य उसे ही गृहस्थ धर्म पालन करनेकी अनुज्ञा देते हैं जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध होनेसे यह जानता है कि वीतराग सर्वज्ञदेवका शासन अनल्लंघ्य है और उसमें संसारके विषयोंको त्याज्य कहा है। किन्तु ऐसा जानते हुए भी उसने अपने अविचारित कार्योंके द्वारा जो चारित्र मोहनीय कर्मका बन्ध किया हुआ है उसके तीव्र विपाकसे वह उन्हें छोड़ने में असमर्थ होता है। अनन्तानुबन्धी कषायसे जो परतन्त्र होते हैं वे तो विषयोंको सेवनीय ही मानते हैं। वे मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनकी यहाँ बात नहीं है। जो उससे छूटकर यह तो दृढ़ आस्था रखते हैं कि ये सेवनीय नहीं हैं किन्तु छोड़ने में असमर्थ होते हैं, वे नियम करते हैं कि मैं एकदेशविरतिको अर्थात् श्रावकके आचारको पालूंगा। और आचार्य उन्हें अनुज्ञा देते हैं। इससे आचार्यपर यह दोषारोपण भी नहीं हो सकता कि उन्होंने श्रावकको स्थावर जीवोंका घात करनेकी अनुमति दी है । अतः ठीक ही कहा है कि जो व्यक्ति सब प्रकारकी हिंसामें आसक्त है उससे यदि जैनाचार्य त्रसहिंसाका त्याग कराते हैं तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उन्होंने स्थावर जीवोंको मारनेकी स्वीकृति दी है। वे तो उससे सभी प्रकारकी हिंसा छुड़ाना चाहते हैं ॥१॥ ___अब सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पाक्षिक श्रावकको अहिंसाकी सिद्धिके लिए मद्य आदिके त्यागमें लगाते हैं गृहस्थ धर्ममें सबसे पहले जिनागमकी आज्ञाका श्रद्धान करते हुए हिंसाको छोड़नेके लिए देश संयमकी ओर उन्मुख पाक्षिक श्रावकको मद्य, मांस, मधु, पाँच क्षीरिफलोंको और 'च' शब्दसे लिये गये मक्खन, रात्रिभोजन और बिना छने जल आदिको छोड़ना हए॥२॥ विशेषार्थ-यहाँ यह बात ध्यानमें रखनेकी है कि जब गृहस्थ सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध होता है तब अहिंसाकी सिद्धिके लिए मद्य-मांस आदिका त्याग करता है । मद्य-मांस आदिके त्यागका सम्यग्दर्शनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, सम्यक्त्व होनेपर उसकी उनसे अरुचि हो जाती है । जैन घरानोंमें मद्य-मांसका सेवन न करना कुलधर्म है। इसी तरह जेनेतर भी बहुत-से ऐसे धार्मिक घराने हैं जैसे, वैष्णव आदि, उनमें भी मद्य-मांसका सेवन नहीं है। किन्तु इससे उन्हें पाक्षिक श्रावक नहीं माना जा सकता। पाक्षिक श्रावककी श्रेणी में तो वही आता सा.-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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