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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) अथ पाक्षिकाचारं प्रपञ्चयितुकामः प्रथमं तावद्यादृशस्य भव्यस्य सागारधर्माभ्युपगमो धर्माचार्यैरभ्यनु३ ज्ञायते तादृशं तद्दर्शयन्नाह त्याज्यानजस्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ॥१॥ पश्यत:-प्रतिपद्यमानस्य । एतेन सम्यग्दर्शनशुद्धस्येत्युक्तं स्यात् । मोहात्-प्रत्याख्यानावरणलक्षणचारित्रमोहोद्रेकात् । यदाह "विषयविषमाशनोत्थितमोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाद्युपक्रमः श्रेयान् ॥ [ इस प्रकार पहले अध्यायमें सागार धर्मकी सूचना मात्र करके विस्तारसे पाक्षिक श्रावकका आचार कथन करनेकी इच्छासे ग्रन्थकार सबसे प्रथम जिस प्रकारके भव्य जीवको धर्माचार्योंने सागारधर्म पालनेकी अनुज्ञा दी है, उसको बतलाते हैं __ जिनेन्द्रदेवकी आज्ञासे इष्ट स्त्री आदि विषयोंको न सेवने योग्य जानते हुए भी जो प्रत्याख्यानावरण नामक चारित्र मोहके तीव्र उदयके कारण त्यागनेमें असमर्थ हैं उन्हें धर्माचार्य गृहस्थ धर्म पालनेकी अनुज्ञा देते हैं ॥१॥ विशेषार्थ-पुरुषार्थसिद्धयुपायके प्रारम्भमें आचार्य अमृतचन्दजीने कहा है कि मुनीइवरोंको वृत्ति अलौकिक होती है वह पाप क्रियासे युक्त आचारसे विमुख और सर्वथा विरतिरूप होती है । यतः श्रावकका आचार पापक्रियासे मिला होता है अतः मुनि उससे विमुख होकर केवल निजस्वरूपका अनुभव करते हैं। इसीलिये वे गृहस्थाचारका उपदेश न देकर समस्तविरतिरूप मुनिधर्मका ही उपदेश देते हैं। किन्तु बार-बार समस्तविरति रूप मुनिधर्मका उपदेश देनेपर भी जो ग्रहण नहीं करता उसे श्रावक धर्मका उपदेश करते हैं। किन्तु जो अल्प बुद्धि मुनि मुनि धर्मका उपदेश न देकर गृहस्थ धर्मका ही उपदेश करता है उसे जिनागममें दण्डके योग्य कहा है क्योंकि इस तरह मुनिधर्मका कथन न करके गृहस्थ धर्मका कथन करनेसे श्रोता यदि मुनिधर्म धारण करनेके लिए उत्साहित हो तो उस दुर्बुद्धिके १. 'अनुसरता पदमेतत् करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा। एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिको वृत्तिः ।। बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति । तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ . अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः । अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना' ।-पुरुषार्थ. १६-१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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