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दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय )
अथ पक्षादिकल्पनाद्वारेण कृतावतारान् श्रावकस्य त्रीन् प्रकारानुद्दिश्य संक्षेपेण लक्षयन्नाहपाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः ।
तद्धर्मगृह्यस्त निष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥२०॥
पाक्षिकः - पक्षेण चरति दीव्यति जयति वा । तद्धमंगृह्यः तस्य श्रावकस्य धर्मः एकदेशहिंसाविरतिरूपं व्रतं गृह्यः पक्षः प्रतिज्ञाविषयो यस्यासौ प्रारब्धदेशसंयमः । श्रावकधर्मस्वीकारपर इत्यर्थः । तन्निष्ठः -- तत्र तद्धर्मे निष्ठा निर्वहणं यस्यासौ घटमान देशसंयमो निरतिचारश्रावकधर्मनिर्वाहपर इत्यर्थः । स्वयुक् - स्वस्मिन्नात्मनि युक् समाधिर्यस्यासौ निष्पन्नदेश संयम आत्मध्यानतत्पर इत्यर्थः । वक्ष्यति च
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'प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नश्चाहंतस्य देशयमः ।
योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी ॥' इति । भद्रम् ।
इत्याशाधरदृब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां दशमोऽध्यायः समाप्तः ।
अत्राध्याये पञ्चदशोत्तराणि त्रिशतानि अङ्कतः । ३१५ ।
लिए भोजन, शारीरिक चेष्टा और शरीरका ममत्व त्यागकर निर्मल ध्यानके द्वारा आत्मासे रागादि दोपोंको दूर करना भी साधन है यह ग्यारहवीं प्रतिमाके पालन रूप हैं । और मरते समय जीवन पर्यन्त के लिए ऐसा करना भी साधन है । आत्माकी शुद्धि तो रागादि दोषों के छोड़नेसे ही होती है और उसके लिए ऐसे ही शुद्ध ध्यानकी आवश्यकता है जो रागादि दोष से दूषित न हो । धर्मका एकमात्र उद्देश यही है ||१९|
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अब पक्ष आदि भेदोंके द्वारा श्रावकके तीन भेदोंका अवतार करके संक्षेपसे उनका लक्षण कहते हैं
पाक्षिक, नैष्ठिक और साधकके भेदसे श्रावक के तीन भेद हैं । उनमें से जो एकदेश हिंसा विरतिरूप श्रावक धर्मका पक्ष लेता है अर्थात् उसका पालन करना स्वीकार करता है. वह पाक्षिक है । और जो उसमें निष्ठा रखता है अर्थात् निरतिचार श्रावक धर्मका निष्ठापूर्वक निर्वाह करता है वह नैष्ठिक है । जो अपनेमें समाधि लगाता है अर्थात् समाधिपूर्वक मरण साधता है वह साधक है ||२०||
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विशेषार्थ - पहला भेद देससंयमकी प्रारम्भिक अवस्थाको बतलाता है, दूसरा भेद उसकी मध्यम अवस्थाको बतलाता है और तीसरा भेद उसकी पूर्णदशाको बतलाता है ||२०||
इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मामृत की स्वोपज्ञसंस्कृत टकानुसारिणी हिन्दी टीकामें प्रारम्भसे दसवाँ और सागार धर्मकी अपेक्षा प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ॥
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