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धर्मामृत ( सागार) मारोहति सतीत्यर्थः। उक्तं च चारित्रसारे-हिसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन् परिग्रहपरित्याग
करणे सति स्वगृहं धर्म च वंश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवतीति । आर्षेऽप्युक्तमष्टा३ विंशतितमे [-ष्टत्रिंशत्तमे पर्वणि गर्भान्वयक्रियावर्णने
'कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्मे दाढयमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्यभावेन संश्रयेत् स गृहीशिताम् । सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सत्प्रशान्तिमतः श्रयेत् ।। विषयेष्वनभिष्वङ्गो नित्यं स्वाध्यायशीलता। नानाविधोपवासैश्च वृत्तिरिष्टा प्रशान्तता ।।' इत्यादि ।
[महापु०, ३८।१४४, १४८-१४९ ] चर्या-दर्शनिकादारभ्यानुमतिविरतं यावदुपासकाचारः । तथा च वक्ष्यति-'इति चर्या गृहत्यागपर्यन्तामित्यादि ।
अत्र सुविधिमहाराजो दृष्टान्तः । अन्ते-गृहत्यागावसाने मरणे चासन्ने । तु शब्दात् 'उदितं दोषं विशोध्य' इत्यनुवृत्याऽत्रापि योज्यम् । अन्नेत्यादि । ईहा-शरीरचेष्टा । नियतकालं यावज्जीवं चेत्युपस्कारः । १५ ध्यात्या-ध्यानेन । प्रपञ्चयिष्यते चैतदुतरत्र । १९॥
करता है, आरम्भ करता है अतः आरम्भी हिंसाको तो नहीं छोड़ सकता, केवल संकल्पी हिंसा को ही छोड़ सकता है क्योंकि आरम्भी हिंसा तो गृहस्थको अवश्य होती है। उसी संकल्पी हिंसाके चार रूप हैं, धर्म मानकर लोग पशुओंकी बलि देते हैं। जैसे यज्ञोंके समयमें पशु होम होता था। मनुस्मृतिमें इसका विधान है। काली आदि देवताओंके लिए तो आज भी बलि प्रचलित है । मन्त्र सिद्धि के लिए भी तान्त्रिक-मान्त्रिक मनुष्य तककी बलि दिया करते थे। औषधि और आहारके लिए तो आज भी प्रतिदिन करोड़ों पशु मारे जाते हैं। इस तरह संकल्पी हिंसाके ये पाँच प्रचलित द्वार हैं । अतः जिसे जैनत्वका पक्षहोता है वह सबसे प्रथम इन पाँच कामोंके लिए जीव वध न करने का नियम लेता है। इसके बिना वह जैन कहलानेका भी पात्र नहीं है । इसके साथ ही उसमें चार भावनाएँ भी होनी चाहिए। पहली है मैत्री भावना, संसारके प्राणिमात्रको अपना मित्र मानना और अपनेको उनका मित्र मानकर एक मित्रकी तरह उनके दुःख और कष्टोंको दूर करनेका प्रयत्न मैत्री है। जो गुणी जन हैं, ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं, परोपकारी हैं उनके प्रति प्रमोद भाव होना, उन्हें देखते ही आनन्दसे गद्गद हो उनका सम्मान आदि करना प्रमोद है। जो कष्टमें हों, दीन दुःखी हों, करुणा बुद्धिसे उनका साहाय्य करना कारुण्य भावना है। और ऐसे भी लोग होते हैं जो अच्छी शिक्षा देनेपर भी रुष्ट होते हैं उनके प्रति माध्यस्थ भाव अर्थात् उनसे राग-द्वेष न करके उपेक्षा करना यह चौथी भावना है । इन भावनाओंसे उक्त अहिंसाव्रतमें वृद्धि होती है । इस तरह जब वह परिपक्क हो जाता है तो अपने दोषोंका प्रायश्चित्त करके दर्शनिक आदि प्रतिमाके व्रत पालता है । अर्थात् ज्यों-ज्यों उसमें रागादिको हीनता होनेसे निर्मल चिद्रूपकी अनुभूति बढ़ती जाती हैं त्यों-त्यों वह बाह्य त्यागकी ओर भी विशेष बढ़ता जाता है। इस तरह दर्शनिकसे लेकर अनुमति विरत तक जितना श्रावकाचार है वह सब चर्या में गर्भित है। अनुमति विरतके बाद वह अपने पुत्र या योग्य दत्तकपर सब भार छोड़कर घर छोड़ देता है । यहाँ अन्तसे दो अभिप्राय हैं-घर छोड़ देनेपर और मरण समयमें । घर छोड़नेपर कुछ नियत समयके
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