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________________ ३७ ३७ १२ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैविधीयते । पश्चाच्चात्मान्वयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।। चर्यैषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारेहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयात्मशोधनम् ॥' [ महापु., ३९।१४३-१४९ ] ॥१८॥ एतदेव संगृहन्नाहस्यान्मैश्याधुपबृंहितोऽखिलवधत्यागो न हिस्याम्यहं धर्माद्यर्थमितीह पेक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः । सूनौ न्यस्य निजान्वयं गृहमथो चर्या भवेत्साधनं त्वन्तेऽन्नेहतनूज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनम् ॥१९॥ अखिलवधः। अखिलोऽनृतादिसहितो वधः प्राणातिपातः। स चेह सागारधर्मप्रक्रमात् त्रसविषय एव । धर्माद्यर्थ-धर्मार्थं देवार्थ मन्त्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहाराथं वा । यदाह 'देवातिथि-मन्त्रौषध-पित्रादिनिमित्ततोऽपि संपन्ना। हिंसा धत्ते नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥' [ अमित. श्रा., ६।२९] इह-एषु पक्षादिषु मध्ये। उक्तं च चारित्रसारे-'अहिंसा परिणामत्वं पक्षः' इति । उदितंकृष्याद्यारम्भद्वारेणोत्पन्नम् । दोषं-हिंसादिकम् । विशोध्य-विधिपूर्वकं प्रायश्चित्तशास्त्रोक्तविधानेन १५ निराकृत्य । सूनी-पुत्रे। तदसंभवे तत्तुल्ये वंश्येऽपि । अथो-पक्ष संस्कारानन्तरं वैराग्यपरिणामे प्रत्यहहिंसाकी विशुद्धि प्रायश्चित्त द्वारा की जाती है । पश्चात् अपने घरका सब भार पुत्रको सौंपकर गृह त्याग देना चर्या है और जीवनके अन्तमें भोजनादिका त्याग करके ध्यानशुद्धि के द्वारा आत्माका शोधन करना साधन है। महापुराणके ३८वें पर्व में गर्भान्वय क्रियाके वर्णनमें भी ऐसा कहा है ॥१८॥ आगे पक्ष चर्या साधनका स्वरूप कहते हैं मैं धर्मके लिए, देवताके लिए, मन्त्रसिद्धिके लिए, औषधके लिए और आहारके लिए प्राणिघात नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनासे वृद्धिको प्राप्त असत्य आदिसे सहित हिंसाको त्यागना पक्ष है। पक्ष संस्कारके बाद प्रतिदिन वैराग्य परिणाम बढ़नेपर कृषि आदिमें लगे हुए हिंसा आदि दोषोंका शास्त्रोक्त विधानके द्वारा शोधन करके और पुत्र पर अपने धन, परिवार और धर्मायतनोंका भार सौंपकर घर छोड़ना चर्या है । पुनः लगे हुए दोषोंको प्रायश्चित्तके द्वारा शुद्ध करके अन्त में आहार, शरीरचेष्टा और शरीरका परित्याग करके निर्मल ध्यानके द्वारा आत्माकी शुद्धि करना साधन है ।।१९॥ विशेषार्थ-यहाँ पक्षचर्या-साधनका स्वरूप कहा है। पक्ष में झूठ. चोरी आदि पापोंके साथ हिंसाका त्याग किया जाता है । यतः सागारधर्मका प्रकरण है अतः त्रसहिंसाका ही त्याग लेना चाहिए। तथा मन्दकषायो भी गृहस्थ चूंकि घरमें रहता है गृहस्थीके सब काम १. तत्र पक्षो हि जनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृहितम् ॥ चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लप्त्यै वा न हिस्यामोति चेष्टितम् ।। तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चितविधीयते । पश्चाच्चात्मालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥ चर्यषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते च साधनम् । देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्मशोधनम् ॥ -महापु. ३९।१४६-१४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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