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________________ धर्मामृत ( सागार) समानदत्तिरेषा स्यात्पात्रे मध्यमतामिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ॥ आत्मान्वयप्रतिष्ठा, सूनवे यदशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् स्वाध्यायः श्रुतभावना । तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥ [ महापु., ३८।२६-४१ ] वणिज्यादि । आदिशब्देन मषीविद्याशिल्पानि गह्यन्ते । उक्तं च 'असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढाः स्युः प्रजाजीवनहेतवः ।।' [ महापु. १६३१७९ ] शुद्धया-प्रायश्चित्तेन । आप्तोदितया-परापरगुरुनिरूपितया । उक्तं चार्षे 'स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुषङ्गी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।। इत्यत्र ब्रूमहे सत्यमल्पसावद्यसङ्गतिः । तत्रास्त्येव तथाऽप्येषां स्याच्छुद्धिः शानदर्शिता ॥ अपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ।। तत्र पक्षो हि जेनानां कृत्स्नहिंसाविसर्जनम् । मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृहितम् ।। चर्यार्थं देवतार्थं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।। सर्वतोभद्र कहते हैं। चक्रवर्ती सम्राद्वारा प्रजाको उसकी इच्छानुसार दान देकर जो पूजा कीजाती है वह कल्पवृक्ष पूजा है। अष्टाह्निक पूजा तो सार्वजनिक है सब उसे जानते हैं। इन्द्र के द्वारा की गयी पूजाको इन्द्रध्वज पूजा कहते हैं। तीनों सन्ध्याओंमें देवताराधनाके साथ जो अभिषेक उपहार आदि किये जाते हैं वह सब भी उक्त भेदोंमें ही जानना। इस प्रकार विधि-विधानके साथ जो जिनेन्द्र देवोंकी पूजा की जाती है विधि-विधानको जाननेवाले उसे इज्या कहते हैं। विशुद्ध वृत्तिसे कृषि आदि करनेको वार्ता कहते हैं। दानके चार भेद हैं। प्रतिग्रह पूर्वक महातपस्वियोंकी पूजाके साथ जो उन्हें भोजन आदि देना है वह पात्रदान है। क्रिया, मन्त्र, व्रत आदिमें जो अपने समान श्रेष्ठ श्रावक हैं उन्हें भूमि, स्वर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिए अपने पुत्रको जो धनादिकके साथ अपने परिवारका भार दिया जाता है वह सकलदत्ति है। दयाके योग्य प्राणियोंको अभयदान देना दयादत्ति है। श्रुतकी भावनाको स्वाध्याय कहते हैं । उपवास आदिको तप कहते हैं और व्रतधारणको संयम कहते हैं । असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प ये छह कर्म प्रजाके जीवन-यापनमें कारण है। षट्कर्मसे आजीविका करनेवाले गृहस्थोंको यद्यपि अल्प पाप होता ही है तथापि उसकी शुद्धिके लिए पक्ष, चर्या साधन कहे हैं। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाके साथ समस्त हिंसाके त्यागको चर्या कहते हैं कि मैं देवताके लिए, मन्त्रसिद्धि के लिए, औषध और आहारके लिए हिंसा नहीं करूँगा। अनिच्छापूर्वक होनेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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