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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) या च पूजा जिनेन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः॥ महामुकुटबद्वैस्तु क्रियमाणो महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥ दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राइभिर्यः प्रवर्त्यते । कल्पवृक्षमहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ।। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ॥ बलिस्नपनमित्यन्यस्त्रिसन्ध्या सेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥ एवं विधिविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्ति प्रथमकल्पिकीम् ॥ वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात्कृष्यादीनामनुष्ठितिः । चतुर्धा वर्णिता दत्तिर्दयादानसमान्वयैः। सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ।। महातपोधनायाा प्रतिग्रहपुरस्सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ।। समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रव्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।। __ आचार्य जिनेसेनने गृहस्थके षट्कर्म इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप बतलाये हैं। पं. आशाधरजीने वार्ताको छोड़कर शेष पाँच ही गिनाये हैं क्योंकि धर्म कर्म पाँच ही हैं। वार्ता तो कृषि आदि षट्कर्म रूप है जो आजीविकासे सम्बद्ध है। इन्हीं पाँच कर्मों में गुरूपासनाको सम्मिलित करके आचार्य सोमदेवने श्रावकके छह दैनिक कर्म बतलाये हैं और उन्हींका अनुसरण आचार्य पद्मनन्दिने अपनी पंचविंशतिकामें किया है। पं. आशाधरजीने इज्या और दत्तिके भेद भी महापुराणके अनुसार ही किये है। महापुराणसे पहलेके उपलब्ध किसी साहित्यमें ये भेद भी नहीं हैं। आचार्य जिनसेनने इन सबका कथन इस प्रकार किया है-अपने घरसे ले जाये गये गन्ध, पुष्प, अक्षत आदिसे जिनालय में प्रतिदिन अर्हन्त देवकी पूजा करना नित्यमह है। भक्ति पूर्वक चैत्य-चैत्यालय आदिका निर्माण कराकर उन्हें ग्राम आदि राजकीय नियमानसार देना भी नित्यमह है। जिनेन्द्रोंको लक्ष्य करके शक्तिके अनुसार दान आदि देना भी नित्यमह है। मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो पूजा की जाती है उसे महामह, चतुर्मुख और १. दयापात्रसमा-मु.।। २. 'इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्यायं संयम तपः।'-महापु. ३८।२४ । ३. 'देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमं तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥'-सो. उपा. ९११ श्लो. । ४. देवपूजा......।६७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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