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________________ धर्मामृत ( सागार ) नित्याष्टाह्निकसच्चतुमुखमहान्कल्पद्रुमैन्द्रध्वजा विज्याः पात्रसमक्रियान्वयवयावत्तीस्तपः संयमौ । स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषीसेवावणिज्यादिकः, शुद्धयाऽऽप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ॥१८॥ नित्येत्यादि-नित्यमहः आष्टाह्निकमहश्चतुर्मुखमहः कल्पवृक्षः ऐन्द्रध्वजश्चेति पञ्चाहत्पूजाविशेषा ६ इज्याः । चतुर्मुखस्य सदिति विशेषणादत्रेदानीमयमेव परमोत्कृष्टः कल्पवृक्षस्यासम्भवादिति प्रकाशयति । अत एवेन्द्रध्वजेन सह समस्यैष निर्दिष्टः । पात्रेत्यादि-समा आत्मना समानाः क्रिया आधानादिका उपलक्षणान्मन्त्रादयश्च यस्यासौ समक्रियः। पात्रं च समक्रियश्च अन्वयश्च दया च पात्रसमक्रियान्वयदया९ स्तदाब या दत्तयो दानादि तहत्तयस्ताः। उक्तं चार्षे 'प्रोक्ता पूजाहंतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानार्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥ चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ॥ कृषि, सेवा, व्यापार आदि छह आजीवन कौंको यथायोग्य स्वीकार करनेवाले गृहस्थको नित्य पूजा, आष्टाह्निक पूजा, सच्चतमख पजा, कल्पद्रम पजा और इ इन्द्रध्वज पूजाको तथा पात्रदन्ति, समक्रियादत्ति, अन्वयदत्ति और दयादत्तिको तथा तप, संयम और स्वाध्यायको करनेके लिए परापर गुरुओं के द्वारा कहे हुए प्रायश्चित्तके द्वारा तथा पक्ष चर्या साधनके द्वारा पापके लेशको दूर करना चाहिए ॥१८॥ विशेषार्थ-भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणके ३९वें पर्वमें कन्वय क्रियाओंका वर्णन करते हुए दूसरी सद्गृहित्व क्रियाका कथन किया है। उसमें यह सिद्ध किया है कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन ही सब वर्गों में उत्तम हैं। वे ही द्विज हैं। वे ब्राह्मण आदि वर्णों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं। आगे आचार्य कहते हैं-'यहाँ शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मोंसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं, उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है। इस विषयमें हमारा कहना है कि आजीविकाके लिए छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंको थोड़ी-सी हिंसा अवश्य लगती है परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी बतलायी गयी है। उनकी विशद्धिके तीन अंग हैंपक्ष, चर्या और साधन ।' इसीका कथन पं. आशाधरजीने किया है। इन्हीं तीनोंके आधारपर उन्होंने श्रावकके पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक भेद किये हैं। इनसे पूर्व किसी श्रावकाचार आदिमें ये भेद नहीं मिलते। १. महः क-मु. प्र.। २. संयमान्-मु. प्र. । ३. 'स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याज्जैनानांच द्विजन्मनाम् ॥ इत्यत्र ब्रमहे सत्यं अल्पसावद्यसंगतिः । तत्रास्त्येव तथाऽप्येषा स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥ अपि चैषां विशुद्धय पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवण्महे ॥' -महापु. ३९।१४३-१४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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