________________
सोमदेवपण्डितास्त्वेवमाहुः -
दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय )
'मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्वकर्माकृषिक्रियाः ।
दिवा नवधिर [ नवविधं ] ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता ।
तद्धानौ च वदन्त्येतानेकादश यथाक्रमम् ॥' [ सो. उपा. ८५३-८५४ इलो. ] ॥१७॥ अथ दुरितापचयनिमित्तेज्यादिधर्मकर्मसिद्धयर्थं कृष्यादिषट्कर्मलक्षण वार्तामाचरतो गृहस्थस्यावश्यंभावी सावद्यलेशः प्रायश्चित्तेन पक्षादिभिश्च निराकार्य इत्युपदेशार्थमाह
यहाँ नहीं चलती । आगेकी प्रतिमावाले श्रावकको पूर्वकी सभी प्रतिमाओंका आचरण पूर्ण रीति से करना ही चाहिए। इन प्रतिमाओंके छठे भेदको लेकर आचार्यों में मतभेद है । आचार्य समन्तभद्रने छठी प्रतिमाको रात्रिभुक्ति विरत नाम दिया है वह रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है । चरित्त पाहुडे (गा. २१), प्राकृत पंचसंग्रह, (१।१३६), वारस अणुवेक्खा (गा. ६९ ), गो. जीवकाण्ड (गा. ४७६ ) और वसुनन्दि श्रावकाचार में छठी प्रतिमाका नाम 'राइभत्ती' ही है । महापुराण ( पर्व १० ) में दिवास्त्री संगत्याग नाम दिया है । सोमदेव के उपासकाचार में ( ८५३-५४ श्लो. ) तीसरी प्रतिमा अर्चा, पाँचवीं प्रतिमा अकृषिक्रिया - कृषिकर्म न करना और आठवीं प्रतिमा सचित्त त्याग है । श्वेताम्बर आम्नाय में (योगशास्त्र टीका ३।१४८ ) पाँचवीं प्रतिमा पर्वकी रात्रि में कायोत्सर्ग करना । छठी प्रतिमा ब्रह्मचर्य, सातवीं प्रतिमा सचित्त त्याग, आठवीं प्रतिमा स्वयं आरम्भ न करना, नवमी दूसरे से आरम्भ न कराना, दसवीं उद्दिष्ट त्याग और ग्यारहवीं साधुकी तरह निस्संग रहना, केशलोंच करना आदि है । यह अन्तर है ।
पं. आशाधरजीके उत्तरकालीन पं. मेधावीने तो अपने श्रावकाचारको आशाघरका ही शब्दशः अनुकरण करते हुए रचा है। पं. राजमल्लने अपनी लाटी * संहितामें दिवा मैथुन विरत और रात्रि भोजन विरत दोनोंका ही संग्रह किया है ||१७||
अब कृषि आदि छह कर्मोंके द्वारा आजीविका करनेवाले गृहस्थको पाप अवश्य होता है । तो पापको दूर करने में निमित्त पूजा आदि धर्म-कर्म की सिद्धिके लिए उस पापको प्रायश्चित्त और पक्ष आदिके द्वारा दूर करनेका उपदेश करते हैं
१. 'अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् ।
स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनु कम्प्यमानमनाः ॥ '-रत्न श्रा. १४२ श्लो. । २. 'दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्ती य ।
३३
बम्भारम्भपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदे दे ॥' [ चरि. पा. २१ गा. ]
३. 'निक्कंपो काउसगं तु पुव्वुत्तगुण संजुओ । करेइ पव्वराई सु पंचम पडिवन्नभ ॥ छट्ठीय बंभयारी सो फासुआहार सत्तमी । वज्जे सावज्जमारंभ अट्ठमि पडिवन्नओ || अवरेणावि आरंभ नवमी नो करावए । दसमीए पुणोद्दिट्टं फासुअंपि न भुंज ॥ एक्कासीइ निस्सँगो घरे लिंगं पडिग्गहं । कयलोओ सुसाहुष्व पुव्वुत्त गुणसायरो ॥' ४. 'किं च रात्रो यथा भुक्तं वर्जनीयं हि सर्वदा । दिवा योषिद्वतं चापि षष्ठस्थानं परित्यजेत् ॥'
सा.-५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
— लाटीसं. ७।२१
६
www.jainelibrary.org