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________________ ३ २ मा धर्मामृत ( सागार) दृष्टया मूलगुणाष्टकं व्रतभरं सामायिकं प्रोषधं सचित्तान्न-दिनव्यवाय-वनितारम्भोपधिभ्यो मतात। उद्दिष्टादपि भोजनाच्च विरति प्राप्ताः क्रमात्प्राग्गुण प्रौढ्या दर्शनिकादयः सह भवन्त्येकादशोपासकाः ॥१७॥ दष्टया-सम्यक्त्वेन विशिष्टं मूलगुणाष्टकं प्राप्तो दर्शनिकः । स एव च व्रतभरं निरतिचाराण्यणु६ व्रतादीनि प्राप्तो प्रतिकः । एवमुत्तरेष्वपि संबन्धः कर्तव्यः। व्यवायो-मैथुनम् । मतात् मदर्थ साधुकृतम नेनेदमित्यनुमोदितात् । अपि भोजनात् । मतादुद्दिष्टाच्च भोजनादपि विरतिं प्राप्तोऽनुमतिविरत उद्दिष्टविरतश्च । योऽनुमतमुद्दिष्टं च भोजनमपि न कुर्यात् स किमन्यत्रारम्भादौ पापकर्मण्यनुमति दद्यादुद्दिष्टं वा वसत्याच्छादनादिकमुपयुञ्जीतेत्यपिशब्दाल्लभ्यते । प्राग्गुण ढिया-दृष्टिमूलगुणाष्टकप्रकर्षेण सह व्रतभरं, तत्त्रयप्रकर्षण सामायिकमित्यादि युक्त्या भवन्तीत्यर्थः । उक्तं च 'श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमाद् वृद्धाः ॥' [ रत्न. श्रा. १३६ ] दर्शनिकादयः । उक्तं च भगवज्जिनसेनपादैरादिनाथस्य सुविधिमहाराजभवान्तरब्यावर्णनप्रस्तावे 'सद्दर्शनं व्रतोद्योतं समतां प्रोषधव्रतम् । सचित्तसेवाविरतिमह्नि स्त्रीसङ्गवर्जनम् ।। ब्रह्मचर्यमथारम्भपरिग्रहपरिच्युतिम् । तत्रानुमननत्यागं स्वोद्दिष्टपरिवर्जनम् ।। स्थानानि गृहिणां प्राहुरेकादश गणाधिपाः । स तेषु पश्चिमं स्थानमाससाद क्रमान्नृपः ॥ [ महापु., १०।१५९-१६१ ] क्रमसे पूर्व-पूर्व गुणोंमें प्रौढ़ताके साथ, सम्यग्दर्शन सहित आठ मूल गुण, निरतिचार अणुव्रतादि, सामायिक, प्रोषधोपवास तथा सचित्तसे, दिवामैथुनसे, स्त्रीसे, आरम्भसे, परिग्रहसे, अनुमत और उद्दिष्ट भोजनसे विरतिको प्राप्त ग्यारह श्रावक होते हैं ॥१७॥ विशेषार्थ-ये श्रावकके ग्यारह भेद हैं। उनके नाम दर्शनिक आदि हैं। जो सम्यगदर्शनके साथ आठ मूल गुणोंका धारक है वह पहला दर्शनिक श्रावक है। जो निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतका पालक है वह दूसरा व्रतिक श्रावक है। जो त्रिकाल सामायिक करता है वह तीसरा सामायिक प्रतिमावाला श्रावक है। जो पर्वके दिनोंमें प्रोषधोपवास करता है वह चतुर्थ प्रोषधोपवासी श्रावक है। जो सचित्त भक्षण आदिका त्यागी है वह पाँचवा सचित्तविरत श्रावक है। जो दिन में मन-वचन-कायसे मैथुन सेवन नहीं करता वह छठा दिवामैथुन विरत श्रावक है। जो सदाके लिए स्त्रीसेवनका त्यागी है वह सातवाँ स्त्रीविरत या ब्रह्मचर्य प्रतिमाका धारी श्रावक है। जो सम्पूर्ण आरम्भोंका त्यागी है वह आठवाँ आरम्भ विरत श्रावक है। जो परिग्रहका त्यागी है वह नौवाँ परिग्रह विरत श्रावक है। जो आरम्भके कार्यों में अनुमति भी नहीं देता वह दसवाँ अनुमति विरत श्रावक है। और उद्दिष्ट भोजनका त्यागी ग्यारहवाँ उद्दिष्ट विरत श्रावक है। श्लोकमें उद्दिष्ट के साथ जो 'अपि' शब्द रखा है उसका अभिप्राय यह है कि जो अनुमत और उद्दिष्ट भोजन भी नहीं करता वह कैसे अन्यत्र आरम्भ आदि पाप कार्यों में अनुमति देगा, या कैसे उद्दिष्ट वसतिका या वस्त्र आदिका उपयोग करेगा। आगे-आगेकी ये प्रतिमाएँ तभी मान्य होती हैं जब पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओंमें परिपक्वता हो। अर्थात् 'पीछेको छोड़ आगेको दौड़की नीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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