SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय ) ३१ रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसबधाचंहोव्यपोहात्मसु । सददग दर्शनकादिदेशविरतिस्थानेष चैकादश स्वेकं यः श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ॥१६॥ रागादीत्यादि-क्षयः-सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभावः। तारतम्यं यथोत्तरमुत्कर्षः। रागद्वेषमोहानां क्षयतारतम्येन । विकसन्ती-आविर्भवन्ती चासो। शुद्धात्मसंविच्च-निर्मलचिद्रूपानुभूतिः । सैव तदुत्थं ६ वा सुखमानन्दस्तस्य स्वाद:-स्वसंवित्यनुभवः, स एव आत्मस्वरूपं येषां तानि तदात्मानि तेषु । त्रसेत्यादिवसबंध आदिर्येषां स्थूलानतादीनां तानि त्रसवधादीनि । तान्येव अंहांसि-पापानि तत्फलत्वात्। तेभ्यो व्यपोहो-विधिपूर्वकं देवगरुसधर्म साक्षिकमपोहो विरतिः स एव आत्मा येषां तानि तेषु । चशब्दस्य भिन्न क्रमस्यात्र योजनात् । यतिव्रतरत:-सर्वविरतिकलशारोपणो हि श्रावकधर्मप्रासादः ॥१६॥ अय दर्शनिकादीन्निदिशति देशविरतिके दर्शनिक आदि ग्यारह स्थान अन्तरंगमें राग आदिके क्षयसे प्रकट हुई शुद्ध आत्मानुभूति रूप सुख या उससे उत्पन्न हुए सुखके स्वादको लिये हुए हैं । और बाह्यमें त्रस हिंसा आदि पापोंसे विधिपूर्वक विरतिको लिये हुए हैं । मुनियोंके व्रतोंमें आसक्त जो सम्यग्दृष्टि उनमें से एक भी प्रतिमाका पालन करता है, वह श्रावक अच्छा करता है ऐसा मैं मानता हूँ ॥१६॥ विशेषार्थ-प्रत्येक प्रतिमाके दो रूप होते हैं-एक भावरूप या अध्यात्मरूप और दूसरा द्रव्यरूप या बाह्यरूप । बाह्यरूप देखा जा सकता है किन्तु अन्तरंगरूपको दूसरे लोग नहीं देख सकते। वह तो स्वसंवेद्य होता है। जब चारित्रमोहनीय कमेके सर्वघाती स्पर्धकोंका क्षय होता है अर्थात् उनके उदयका अभाव होता है और देशघाति स्पर्द्धकोंका उदय रहता है तब राग-द्रेषके घटनेसे निर्मल चिदपकी अनुभति होती है। वह अनुभति सखरूप है या उस अनुभूतिसे उत्पन्न हुए सुखका स्वाद उन प्रतिमाओंका अन्तरंग रूप है । ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर रागादि घटते जाते हैं त्यों-त्यों आगेकी प्रतिमाओंमें निर्मल चिद्रपकी अनुभूतिमें वृद्धि होती जाती है और उत्तरोत्तर आत्मिक सुख भी बढ़ता जाता है। इसके साथ ही श्रावककी बाह्य प्रवृत्तिमें भी परिवर्तन आये विना नहीं रहता। वह प्रतिमाके अनुसार स्थूल हिंसा आदि पापोंसे निवृत्त होता जाता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि श्रावक सतत यह भावना रखता है कि कब मैं गृहस्थाश्रम छोड़कर मुनिपद धारण करूँ। तभी उसका प्रतिमा धारण सफल माना जाता है। ऐसा श्रावक किसकी श्रद्धाका भाजन नहीं होगा ? श्वेताम्बर साहित्यमें तो पहली प्रतिमा एक मास, दूसरी प्रतिमा दो मास, तीसरी तीन मास, चौथी चारमास इस तरह ग्यारहवीं ग्यारह मास तक ही पालनेका विधान है। अर्थात् पहली प्रतिमा एक मास पालकर दूसरी प्रतिमा लेनी होती है, दूसरी प्रतिमा दो मास पालकर तीसरी लेनी होती है। इस तरह एक से ग्यारह मास तक क्रमशः ग्यारह प्रतिमाएँ पालनेपर १+२+३+४+५+६+७+८+९+ १० + ११ = ६६ मासके बाद मुनिव्रत लेना होता है ।।१६॥ ___ आगे दर्शनिक आदि श्रावकोंका लक्षण कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy