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________________ 3 ६ ९ १२ ३० अपि च यदाह धर्मामृत ( सागार ) 'ध्यानेन शोभते योगी संयमेन तपोधनः । सत्येन वचसा राजा गेही दानेन चारुणा ॥' [] 'जइ घरु करिदाणेण सहुं अहतउ करिणी गंथु | विहे चुं कर सुम्पउ भण इअजिय एंथण उंथ ॥' [ 1 दानं च यजनं च दानयजने प्रधाने मुख्ये यस्य । वार्ता तु श्रावकस्य गौणीति प्रधानग्रहणाल्लक्षयति । 'आयुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत् पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात्सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि । Jain Education International इत्यार्याः सुविचार्यं कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोद्यमा, द्रागागामि भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्तेतराम् ॥' [ आत्मानु. ३७ ] ज्ञानसुधां - स्वपरान्तरज्ञानामृतम् ॥१५॥ अथ भावद्रव्यात्मनामेकादशानामुपासकपदानां मध्येऽन्यतमं विशुद्धदृष्टिमहाव्रतपरिपालनलालसो यथात्मशक्ति यः प्रतिपद्यते तमभिनन्दति - विशेषार्थ - जो गुरु आदिसे धर्म सुनता है वह श्रावक है । अर्थात् एकदेश संय धारीको श्रावक कहते हैं । श्रावकके आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुण होते हैं । उत्तरगुणों के प्रकट होने में निमित्त होने से तथा संयम के अभिलाषियोंके द्वारा पहले पाले जानेके कारण मूल गुण कहे जाते हैं । और मूल गुणोंके बाद सेवनीय होनेसे तथा उत्कृष्ट होने से उत्तर गुण कहलाते हैं । गुण कहते हैं संयमके भेदोंको । जो संयमके भेद प्रथम पाले जाते हैं मूल गुण हैं। मूल गुणमें परिपक्व होनेपर ही उत्तर गुण धारण किये जाते हैं । किसी लौकिक फलकी अपेक्षा न करके निराकुलतापूर्वक धारण करनेका नाम निष्ठा रखना है । तथा अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठी के चरण ही उसके शरण्य होते हैं अर्थात् उसकी यह अटल श्रद्धा होती है कि मेरी सब प्रकारकी पीड़ा पंचपरमेष्ठीके चरणोंके प्रसादसे दूर हो सकती है. अतः वे ही मेरे आत्मसमर्पण के योग्य हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन पूर्वक देश संयमको धारण करनेवाले श्रावकका कर्तव्य आचार है चार प्रकारका दान और पाँच प्रकारकी जिनपूजा, जो आगे बतलायेंगे। यद्यपि श्रावकका कर्तव्य आजीविका भी है। किन्तु वह तो गौण है । श्रावक धर्म की दृष्टि से प्रधान आचार, दान और पूजा है । यह बतलाने के लिए 'प्रधान' पद रखा है। तथा ज्ञानामृतका पान करने के लिए वह सदा अभिलाषी रहता है । यह ज्ञानामृत है स्व और परका भेद ज्ञानरूपी अमृत। उसीसे उसकी ज्ञान-पिपासा शान्त होती है ॥ १५ ॥ इस प्रकार देशविरतिरूप पंचम गुणस्थानका कथन करके, उसके भेद जो द्रव्यभावरूप ग्यारह श्रावक प्रतिमाएँ हैं, उनमें से महात्रतोंके पालन करनेकी लालसा रखनेवाला जो सम्यग्दृष्टि अपनी शक्ति के अनुसार एक भी प्रतिमाका पालन करता है उसका अभिनन्दन करते हैं— For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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