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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) धर्म यशः शर्म च सेवमानाः केऽप्येकशो जन्म विदुः कृतार्थम् । अन्ये द्विशो विध वयं त्वमोघान्यहानि यान्ति त्रयसेवयव ॥१४॥ केऽपि-लौकिकाः । एकशः-एकैकं । द्विश:-द्वे द्वे ॥१४॥ अथ सम्यक्त्वदृढत्वानन्तरं शिष्टगृहस्थानामवश्यारोहणीयं 'जो तसवहादु विरदो अविरदओ तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥ [ गो. जी. ३१ गा. ] इति सूत्रनिर्दिष्टं संयतासंयतत्वपदं निर्देष्टुमाह मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ॥१५॥ मूलोत्तरगुणनिष्ठां-मलानि उत्तरगुणप्ररोहणनिमित्तत्वात् । तस्य च यजनात् प्रागुपन्यासः पाक्षिकापेक्षया । पाक्षिको हि प्रायो(5) संवृताचारत्वाद्यथावदर्हदादिपूजायामसमर्थो दानेनैव विशुद्धिमाप्नोति । यदाह धर्म, यश और सुखमें-से एक-एककी साधना करनेवाले कोई-कोई लौकिक जन अपने जन्मको कृतार्थ मानते हैं । लोकव्यवहारका अनुसरण करनेवाले और अपनेको शास्त्रज्ञ माननेवाले कुछ दूसरे जन इन तीनोंमें से किन्हीं दोकी साधना करनेसे जन्मको कृतार्थ मानते हैं। किन्तु लौकिक और शास्त्रज्ञ दोनोंको ही सन्तुष्ट करनेवाले हम तो तीनोंकी ही साधना करनेसे मनुष्यजन्मके दिनोंको सफल मानते हैं ॥१४|| विशेषार्थ-कहावत है कि लोगोंकी रुचियाँ भिन्न होती हैं । अतः धर्म, सुख, यशमें-से मनुष्यको किसकी साधना अपने जीवन में करना चाहिए जिससे जन्मको सफल माना जाये, इसके विषयमें विभिन्न लोगोंके विभिन्न मत हैं । जो केवल लोकानुसारी हैं उनमें से कुछ तो ऐसा मानते हैं कि धर्मकी साधना करनेसे ही मनुष्यजन्मकी सफलता है। कुछ मानते हैं कि केवल सुखोपभोगमें ही मनुष्यजन्मकी कृतकृत्यता है। कुछ कहते है कि कमाने में ही सार्थकता है। इस तरह वे तीनोंमें-से एक-एककी साधनामें हो समझते हैं कि मनुष्यने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। उसे कुछ करना शेष नहीं रहा। इन लौकिक जनोंसे दूसरे नम्बरपर वे हैं, जो अपनेको शास्त्रज्ञ भी मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि तीनोंमें-से दोकी साधना करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। अर्थात् कुछ धर्म और यशको, कुछ धर्म और सुखको और कुछ यश और सुखको साधन करनेसे जन्मको सफल मानते हैं। किन्तु लौकिक जन और शास्त्रज्ञ दोनोंके ही अभिप्रायोंको समझनेवाले ग्रन्थकारका मत है तीनोंमें-से एक-एक या दो-दोके सेवन करने से जन्म सफल नहीं होता किन्तु तीनोंकी ही साधना करनेसे मनुष्यजन्म सफल होता है। अतः गृहस्थको अपने जीवन में धर्म भी करना चाहिए, धर्मानुकूल सुख भी भोगना चाहिए और संसारमें जिनसे यश हो, ऐसे परोपकारके कार्य भी करना चाहिए ॥१४॥ इस तरह सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेपर यदि पूर्ण संयम धारण करनेकी शक्ति आदिका अभाव है तो एकदेश संयम अवश्य धारण करना चाहिए, ऐसा कथन करते हैं __ जो मूल गुण और उत्तरगणमें निष्ठा रखता है, अर्हन्त आदि पाँच गुरुओंके चरणोंको ही अपना शरण मानता है, दान और पूजा जिसके प्रधान कार्य हैं तथा ज्ञानरूपी अमृतको पीनेका इच्छुक है वह श्रावक है ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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