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________________ ३ २८ धर्मामृत ( सागार ) अपि च 'न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षितो कदाचन क्षिप्तमपि प्ररोहति । सदाऽप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शने तद्विपरीतमिष्यते ॥' [ अथ धर्मशर्मवद्यशोऽपि मनःप्रसत्तिनिमित्तत्वाच्छिष्टैरवश्यं सेव्यमित्युपदेष्टुमाह किन्तु दोनों में अन्तर है । ब्रह्मदेवजी कहते हैं कि जैसे मारनेके लिए कोतवालके द्वारा पकड़ा गया चोर अपनी निन्दा वगैरह करता है वैसे ही अविरत सम्यग्दृष्टि इन्द्रियसुख भोगकर अपनी निन्दादि करता है। पं. आशाधरजी भी अपनी टीका में कहते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि भी अपनी निन्दा करता है - 'मुझे धिक्कार है मैं हाथ में दीपक लिये हुए होने पर भी अन्धकूपमें गिरनेवाले के समान हूँ ।' तथा गुरुके समक्ष अपनी गर्दा भी करता है कि 'भगवन् ! मुझ कुमार्गगामीका दुर्गतिके दुःखोंसे कैसे बचाव होगा।' इसपर से यह प्रश्न होता है कि ऐसा होते हुए भी वह कैसे इन्द्रियसुखका सेवन करता है और कैसे उसके लिए प्राणियों का घात करता है ? तो उसका उत्तर है कि वह चारित्रमोहनीयके उदयके अधीन होकर ऐसा करता है । जैसे कोतवालके द्वारा मारनेके लिए पकड़ा गया चोर कोतवालके अधीन होकर जो-जो कोतवाल कराता है, गधेपर चढ़ाना आदि, वह उस चोरको करना पड़ता है । इसी तरह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी चारित्रमोहके उदयसे जो-जो द्रव्यहिंसा, भावहिंसा आदि करायी जाती है उसे अयोग्य जानते हुए भी करता है क्योंकि अपने समय पर फलोन्मुख हुए कर्मके उदयको टालना बहुत ही कठिन है। इस तरह पं. आशाधरजीने उक्त दृष्टान्तका प्रयोग दूसरे प्रकारसे किया है । उक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के किसी प्रकारका कोई त्याग नहीं होता । किन्तु त्यागके मार्गपर चलने की आन्तरिक भूमिका मात्र तैयार हो जाती है । जिस इन्द्रियसुखको ही सार मानकर जीव दुनिया भर के पाप कार्य करता है उसे वह अन्तःकरणसे हेय मानने लगता है और जिस आत्मिक सुखको वह भूला था उसे उपादेय मानता है । उसकी यह आन्तरिक श्रद्धा ही उसे अविरत सम्यग्दृष्टि से देशविरत और सर्वविरत बनाती है । किन्तु लेशमात्र देशसंयम के नहीं होनेपर भी सम्यक्त्व मात्रसे ही उसके सांसारिक कष्टोंमें कमी हो जाती है । सम्यक्त्व ग्रहण करने से पहले आगामी भवकी आयुका बन्ध न करनेवाले असंयमी भी सम्यग्दृष्टि के सुदेव और उत्तम मनुष्य पर्यायको छोड़कर शेष समस्त जन्मोंका अभाव हो जाता है, क्योंकि अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मरकर या तो उत्तम देव होता है या उत्तम मनुष्य होता है । किन्तु जो आगामी भवकी आयुका बन्ध कर लेनेके बाद सम्यक्त्व ग्रहण करता है उसने यदि नरकाका बन्ध किया है तो वह मरकर प्रथम नरक में जघन्य स्थिति ही भोगता है । अतः केवल सम्यक्त्वके प्रभावसे उसका बहुत-सा दुःख घट जाता है । अतः संयम धारण करने का समय आने से पहले संसारसे भयभीत भव्य जीवको सदा सम्यग्दर्शनकी आराधना में ही प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार उक्त श्लोकका उपसंहार विधिपरक ही लेना चाहिए ॥१३॥ ] ॥१३॥ आगे कहते हैं कि धर्म और सुखकी तरह यश भी मनकी प्रसन्नता में निमित्त है अतः शिष्ट पुरुषोंको यशके कार्य भी करना चाहिए १. दुर्गतावायुषो बन्धात् सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ॥ [ Jain Education International For Private & Personal Use Only ] www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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