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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) २७ तथा 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यग्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुःकुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः॥ [ रत्न. श्रा. ३५ ] किन्तु वह सरागसम्यक्त्व वीतरागचारित्रके अविनाभावी निश्चय सम्यक्त्वका कारण है इसलिए भी निश्चय सम्यक्त्व कहा है। इस विषयमें-पं. टोडरमलजीके मोक्षमार्ग प्रकाशकका भी कथन उद्धृत किया जाता है ___विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप 'आत्माका परिणाम वह तो निश्चय सम्यक्त्व है क्योंकि वह सत्यार्थ सम्यक्त्वका स्वरूप है। सत्यार्थका ही नाम निश्चय है। तथा विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानको कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। क्योंकि कारणमें कायंका उपचार किया है। सो उपचारका ही नाम व्यवहार है। वहाँ सम्यग्दृष्टि जीवके देवगुरु धर्मादिकका सच्चा श्रद्धान है। उसी निमित्तसे उसके श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव है । यहाँ विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है। और देवगुरु धर्मादिकका श्रद्धान है सो व्यवहारसम्यक्त्व है। इस प्रकार एक ही कालमें दो सम्यक्त्व पाये जाते हैं । तथा मिथ्यादृष्टि जीवके देवगुरु धर्मादिकका श्रद्धान आभास मात्र है । और उसके श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव नहीं होता, इसलिए वहाँ निश्चय सम्यक्त्व तो है नहीं और व्यवहारसम्यक्त्वका भी आभास मात्र है क्योंकि उसके देवगुरु धर्मादिकका श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशके अभावका साक्षात् कारण नहीं हुआ। कारण हुए बिना उपचार सम्भव नहीं।' ऊपर जिस दृष्टिसे पं. आशाधरजीने अविरत सम्यकदृष्टिके सम्यक्त्वको निश्चय सम्यक्त्व कहा है उसी दृष्टिसे पं. टोडरमलजीने निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहा है। ऐसा निश्चय सम्यग्दृष्टि ही अविरत सम्यग्दृष्टि होता है क्योंकि उसके संयमका लेश भी नहीं होता। उसका कारण यह है कि उसके सोलह कषायोंमें-से अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायोंका उदय वर्तमान है। जिसके उदयमें जीव थोड़ा-सा भी व्रत संयम धारण करने में असमर्थ होता है उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं । इसीके उदयसे प्रेरित होकर वह इन्द्रिय सम्बन्धी सुखको भी भोगता है और स्थावर तथा त्रसजीवोंका घात भी करता है। ऐसा वह सम्यक्त्व दशामें ही करता है तभी तो उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। गोम्मटसार जीवेकाण्डमें भी सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्यने ऐसा ही कहा है कि जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत है और न त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसासे विरत है केवल जिनवचनोंपर उसकी श्रद्धा है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है। यहाँ उसका उदाहरण कोतवालके द्वारा मारनेके लिए पकड़े गये चोरसे दिया है। यही उदाहरण ब्रह्मदेव सूरिने बृहद्रव्य संग्रहकी टीकामें दिया है। १. 'यदुदयाद्देशविरति संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः।'-सर्वार्थ. ८९। २. 'णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वा पि । जो सहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥'-गो. जी. २९ गा.। ३. 'भूमिरेखादिसशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिन्दासहितः सन्नि न्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेलक्षणम् ।'-बृहद्. टी., १३ गा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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