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________________ दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय ) १५ पदत्वं ) । कामबाधया धर्मार्थों सेवमानस्य । गार्हस्थ्याभावः स्यात् । एवं च तादात्विकमूल हरकदर्येषु धर्मार्थकामानामन्योन्याबाधा सुलभैव । तथाहि यः किमप्यसंचिन्त्योत्पन्नमर्थमपर्व ( -व्ये ) ति स तादात्विकः । यः पितृपितामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः । यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति न तु क्वचिदपि व्ययते स कदर्यः । तत्र तादात्विकमूलहरयोरर्थभ्रंशेन धर्मकामयोविनाशान्नास्ति कल्याणम् । कदर्यस्य त्वर्थसंग्रहो राजदायादतस्कराणां निधिर्न तु धर्मकामयोर्हेतुरिति । एतेन च त्रिवर्गबाधा गृहस्थस्य कर्तुमनुचितेति प्रतिपादितम् । यदा तु दैववशाद् बाधा संभवति तदोत्तर (-रोत्तर - ) बाधायां पूर्वस्य पूर्वस्य बाधा रक्षणीया । तथाहि — कामबाधायां धर्मार्थयोर्बाधा रक्षणीया, तयोः सतोः कामस्य सुकरोत्पादत्वात् । कामार्थयोस्तु बाधायां धर्मो रक्षणीयः, धर्ममूलत्वादर्थकामयोः । उक्तं च 'धर्मश्चेन्नावसीदेत केपोतेनापि जीवता । आद्यो ऽस्मीत्यवगन्तव्यं धर्मचिन्तों हि साधवः ॥' [ एतेन इदमपि सूक्तं संग्रहीतमेव 'पादमायान्निधिं कुर्यात्पादं वित्ताय खट्वैयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्तव्यपोषणे ॥' [ केचित्वाहु: -- 'आयाद्धं च नियुञ्जीत धर्मे समधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ॥ आयव्ययमनालोच्य यस्तु वैश्रवणायते । अचिरेणैव कालेन सोऽत्र वै श्रव (-म-) णायते ॥' [ Jain Education International १. ऋणाधिकत्वं - यो. टी. । २. 'कपालेनापि जीवतः ' - योग. टी. ३. आढ्यो - यो. टी. ४. धर्मवित्ता हि-यो. टी. । ५. न्निविं । ६. कल्पयेत् — सो. उपा. ३७३ ॥ परवाह न करके केवल धर्मसेवन करना तो मुनियोंका ही धर्म है गृहस्थोंका नहीं | किन्तु धर्ममें बाधा डालकर अर्थ और कामका सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि बीजके गेहूँको भी खा डालनेवाले किसानकी तरह अधार्मिक पुरुषका भविष्य में अकल्याण ही होता है । सुखी वही होता है जो पारलौकिक सुखका विरोध न करते हुए इस लोक में सुख भोगता है । इसी तरह धन कमानेकी चिन्ता न करके जो धर्म और कामका सेवन करता है वह कर्जदार हो जाता है। जो कामसेवनसे विमुख होकर केवल धर्म और अर्थका उपार्जन करता है उसका गार्हस्थ्य समाप्त हो जाता है । अतः गृहस्थको त्रिवर्ग में बाधा डालना उचित नहीं है । यदि दैववश बाधा पड़े तो उत्तरोत्तर की बाधामें पूर्व-पूर्व की बाधा रक्षणीय है । अर्थात् काम सामने धर्म और अर्थ में बाधा उपस्थित हो उसे पहले दूर करना चाहिए क्योंकि धर्म और धनके रहनेपर कामसुख सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। काम और अर्थके सामने धर्मकी बाधा होनेपर उसे पहले दूर करना चाहिए क्योंकि अर्थ और कामका मूल धर्म है । ] For Private & Personal Use Only ] ३ ६ ९ १२ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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