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________________ धर्मामृत ( सागार) तथा गुणैः - ज्ञानसंयमादिभिर्गुरवो महान्तो गुणगुरवस्तान् । यजन् —– सेवाञ्जल्यास नाभ्युत्थानादिकरणेन मानयन् । ज्ञानसंयम संपन्ना हि पूज्यमाना नियमात् कल्पद्रुमा इव सदुपदेशादिफलैः फलन्ति । गुणाच ३ गुरवश्च गुणगुरवश्चेति विगृह्यकशेषेण गुरवस्तान् । सद्गीः — सती प्रशस्ता परावर्णवादपारुष्यादिदोषरहिता गीर्वाण्यस्यासी । परापवादो हि बहुदोषः । यदाह ६ १४ 'परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच्च वध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥' [ तत्त्यागश्च बहुगुणो । यदाह १५ 'यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥' [ 1 श्रीत्यादि । त्रिवर्गो धर्मार्थकामाः । तत्र 'यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः । यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः । यत आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रियप्रीतिः सः कामः । तं त्रिवर्गमन्योन्यानुगुणं गुणमुपकारमनुगतं १२ परस्परानुपघातकं भजन् सेवमानः । यदाह 'यस्य त्रिवर्गशून्यानि दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥' [ J अत्रेदं चिन्त्यते—धर्मार्थयोरुपघातेन तादात्विकविषयसुखलुब्धो वनगज इव को नाम न भवत्यास्पदमापदाम् । न च तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्य कामेऽत्यन्तासक्तिः । धर्मकामातिक्रमाद्धनमुपार्जितं परे अनुभवन्ति स्वयं तु परं पापस्य भाजनं सिंह इव सिन्धुरवधात् । अर्थकामातिक्रमेण च धर्मसेवा यतिनामेव धर्मो न गृहस्थानाम् । न च धर्मबाधया अर्थकामी सेवेत । बीजभोजिनः कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्याऽऽयत्यां किमपि कल्याणम् । स खलु सुखी योऽमुत्र सुखाविरोधेनेह लोकसुखमनुभवति । एवमर्थबाधया धर्मकामी सेवमानस्य १८ 1 माता, बड़ा भाई इनकी अवमानना नहीं करना चाहिए।' तथा जो ज्ञान, संयम आदिसे महान हैं उनकी सेवा, हाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, उनके सामने उठकर खड़े होना आदिसे सम्मान करना चाहिए। क्योंकि जो ज्ञान और संयमसे सम्पन्न हैं उनकी पूजा करनेपर नियमसे वे कल्पवृक्षके समान सदुपदेशरूप फल प्रदान करते हैं । ३. गृहस्थकी वाणी परनिन्दा, कठोरता आदि दोषोंसे रहित होना चाहिए, परके अपवाद में बहुत दोष है । कहा है- 'दूसरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा से नीच गोत्र कर्मका ऐसा बन्ध होता है जो करोड़ों भवोंमें भी नहीं छूटता ।' तथा उसके त्यागमें अनेक गुण हैं । कहा है- 'यदि तू जगत्को एक ही कार्यके द्वारा वशमें करना चाहता है तो अपनी वाणीरूपी गौको परनिन्दारूपी धान्यको चरनेसे बचा' । ४. धर्म, अर्थ और कामको त्रिवर्ग कहते हैं। जिससे सांसारिक अभ्युदयपूर्वक मोक्षकी प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं । जिससे समस्त प्रयोजन सिद्ध होते हैं उसे अर्थ कहते हैं । और जिससे सब इन्द्रियोंकी तृप्ति होती है उसे काम कहते हैं । गृहस्थको इन तीनोंका ही सेवन इस प्रकार करना चाहिए कि एकसे दूसरेमें बाधा न आवे अर्थात् एक-एकका सेवन न करके तीनोंका ही अपने-अपने समयपर सेवन करना चाहिए । जो धर्म और अर्थ की परवाह न करके बनैले हाथीकी तरह विषयसुखमें आसक्त रहता है वह किन आपत्तियोंका शिकार नहीं होता । जिसकी कामसेवनमें अति आसक्ति होती है उसका धन, धर्म और शरीर नष्ट हो जाते हैं । जो धर्म और कामकी परवाह न करके केवल धन कमाने में ही लगा रहता है उसके धनको दूसरे भोगते हैं और वह स्वयं पापका भाजन बनता है । इसी तरह धन और कामभोगकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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