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________________ १३ ३ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) विभववत्वं च गार्हस्थ्ये प्रधानकारणमिति प्रागस्योपादानम् । यजन् गुणगुरून्-[ गुणा:-] सौजन्योदार्यदाक्षिण्य-स्थैयप्रियपूर्वकप्रथमाभिभाषणादयः स्वपरोपकारिण आत्मधर्माः । तथा 'लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्तितः ।।' [ ] इत्यादि शिष्टाचरणं च । तान् यजन्-पूजयन् । तत्र सौजन्यादीनां पूजा बहुमानप्रशंसा साहाय्यकरणादिना अनुकूला प्रवृत्तिः ।........तिनो हि जीवा अवंद्य (-ध्य) पुण्यबीजनिषेकेणेहामुत्र....संपदमारोहन्ता । शिष्टाचारस्य च प्रशंसैव पूजा । यथा 'विपद्युच्चैः स्थैर्य पदमनुविधेयं च महतां प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥' [ तथा गुरवो मातापित्राचार्याश्च । तान् यजन् । तत्र मातापित्रोः पूजा त्रिसन्ध्यं प्रणामकरणेन लोकद्वय. १२ हितानुष्ठाननियोजनेन सकलव्यापारेषु तदाज्ञया प्रवृत्त्या वर्णगन्धादिप्रधानस्य पुष्पफलादिवस्तुबटपटौकनेन तद्भोगोपयोगे च नवान्नादीनामन्यत्र तदनुचितादिति । आचार्यपूजा तु विनयवर्णने व्याख्याता। व्याख्यास्यते च 'सेवेत गुरून्' इत्यत्र । मनुरप्याह 'यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ।। उपाध्यायाद्दशाचार्य आचार्येभ्यः शतं पिता । सहस्रं तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते ।। आचार्यश्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः । नात्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः ।।' [ मनुस्मृ० ] डरना, दीनोंके उद्धारमें आदरभाव, कृतज्ञता, उदारता आदिको सदाचार कहते हैं। इनका बहुमान करना, प्रशंसा करना, इन गुणवालोंकी सहायता करने आदिके रूपमें अनुकूल प्रवृत्तिको पूजा कहते हैं। शिष्टाचारकी प्रशंसा ही उसकी पूजा है। यथा-'घोर विपत्तिमें स्थिरता, महान् पुरुषोंके पदोंका अनुसरण, न्यायपूर्वक आजीविका, प्राण जानेपर भी मलिनताका न आना, दुर्जनोंकी अभ्यर्थना न करना, गरीब मित्रसे भी याचना न करना, यह सज्जन पुरुषोंका विषम असिधाराव्रत किसने कहा है। ___तथा माता, पिता, आचार्य आदि गुरु कहे जाते हैं । गृहस्थको उनका भी पूजक होना चाहिए। उनमें-से माता पिताकी पूजा तीनों सन्ध्याओंमें उन्हें प्रणाम करना, इस लोक और परलोकमें हितकारी अनुष्ठानोंमें लगना, उनकी आज्ञासे ही सब काम करना, घरके लिए आवश्यक वर्ण-गन्ध-पुष्प-फल आदि तथा नया अन्न आदि लाना, यह सब उनकी पूजा है। आचार्यपूजाका कथन तो पूर्व में विनयके वर्णनमें किया जा चुका है। आगे भी कहेंगे। मनुने भी कहा है-'सन्तानको जन्म देने में माता-पिता जो कष्ट सहते हैं उसका मूल्य सैकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता । उपाध्यायसे दस गुणा आचार्यका, आचार्यसे सौ गुना पिताका और पितासे हजार गुना माताका गौरव है। आचार्य, पिता, १. वस्तुन उपढौ-यो. टी. ११४७ । २. तद्भोगे भोगेन चान्ना-यो. टी.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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