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________________ धर्मामृत ( सागार) 'अन्यायोपार्जितं वित्तं दश बर्षाणि तिष्ठति। प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ॥' 'पापेनैवार्थरागान्धः फलमाप्नोति यत्क्वचित । बडिशामिषवत्तत्तमविनाश्य न जीर्यति ॥' [ न्यायनिष्ठं च तिर्यञ्चोपतिष्ठन्ते । अन्यायपरस्तु सोदरैरपि दूरे क्रियेत । यदाह 'यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥' [ ] यद्यपि च कस्यचित्पापानुबन्धिपुण्यकर्मवशादिह लोके विपन्नोपलभ्यते तथापि परलोके साऽवश्यं भाविन्येव । तथा चाह 'नालोकयन्ति पुरुतः परलोकमार्ग लीलातपत्रपटलावृतदृष्टयो ये। तेषामगाधनरकात्तविमोहितानां घोरान्धकूपकुहरे निकटो निपातः ॥' [ ] न्याय एव च परमार्थतोऽर्थोपार्जनोपायोपनिषत् । यदाह 'निपानमिव मण्डूकाः सरः पूर्णमिवाण्डजाः। शुभकर्माणमायान्ति विवशाः सर्वसंपदः ॥' [ न्यायोपार्जितमेव च वित्तं पुरुषार्थसिद्धये प्रभवेत् । यदाह 'पैशून्य-दैन्य-दम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात् । लोकद्वयधर्मार्थ ... ................. ........ ॥' [ ] सत्पात्रोंको तथा दीन-दुखियोंको दान किया जाता है। अन्यायका धन तो दोनों ही लोकोंमें अहितकारी होता है। इस लोकमें लोकविरुद्ध कार्य करनेसे सरकारसे दण्ड मिलता है और परलोकमें दुर्गति मिलती है। इसके सिवाय अन्यायसे कमाया हुआ धन अधिक समय तक नहीं ठहरता, बल्कि पूर्वसंचित द्रव्यको भी साथ में ले जाता है। कहा है-'अन्यायसे उपार्जित धन दस वर्ष तक ठहरता है। ग्यारहवाँ वर्ष लगते ही मूलके साथ नष्ट हो जाता है । जैसे मछलीको फाँसनेके काँटेमें लगा मांस अपने साथ मछलीको भी ले मरता है उसी तरह धनके रागसे अन्धा हुआ मनुष्य अपने पापसे ही उस फलको पाता है।' न्यायी मनुष्यका पशु-पक्षी भी विश्वास करते हैं। अन्यायीसे तो सहोदर भाई भी दूर हो जाता है। कहा है-'न्यायीकी सहायता पशु-पक्षी भी करते हैं और कुमार्गगामीको सहोदर भाई भी छोड़ देता है।' यद्यपि किसी-किसी अन्यायीके पापानुबन्धी पुण्यकर्मके उदयसे इस लोकमें विपत्ति नहीं देखी जाती तथापि परलोकमें विपत्ति अवश्य आती है। कहा है-'अपनी दृष्टि विलासलीला पटलसे आच्छादित होनेके कारण जो सामने स्थित परलोकके मार्गको नहीं देख पाते उन मुग्धबुद्धियोंका घोर अन्धकूपरूपी नरकमें पतन समीप ही है।' परमार्थसे धन कमानेका उपाय न्याय ही है। कहा है-जैसे मेढक जलाशयमें और मछलियाँ भरे तालाबमें आकर बसती हैं वैसे ही समस्त सम्पदा विवश होकर शुभकर्मका अनुसरण करती हैं । न्यायसे उपार्जित धन ही पुरुषार्थकी सिद्धिमें सहायक होता है। वैभव गृहस्थाश्रममें प्रधान कारण है, इसलिए सर्वप्रथम उसीका निर्देश किया है ॥१॥ २. अपना और पराया उपकार करनेवाले सौजन्य, उदारता, दानशीलता, स्थिरता, प्रेमपूर्वक वार्तालाप करना आदि आत्मधर्मोंको गुण कहते हैं। तथा लोकापवादसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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