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धर्मामृत ( सागार ) तदित्यादि । तं त्रिवर्गमर्हन्ति तत्साधनयोग्या भवन्तीति तदर्हा गृहिणीस्थानालया यस्य स तथोक्तः । तत्र समकुलशीला स्वजनकजनन्यग्निदेवादिसाक्षिकं कृतपाणिग्रहणा शुचिपोराचाररता चरित्रशरणार्जवक्षमोपेता ३ च त्रिवर्हाि गृहिणी। तत्पौराचारोपदेशो जनकस्य सीतां प्रति यथा
'अभ्युत्थानमुपागते गृहपती तद्भाषणे नम्रता, तत्पादार्पितदृष्टिरासनविधौ तस्योपचर्या स्वयम् । सुप्ते तत्र शयीत तत्प्रथमतो जह्याच्च शय्यामिति, प्राज्ञैः पुत्रि निवेदिताः कुलवधूसिद्धान्तधर्मा अमी ।।' [ 'निर्व्याबाधयिते ननांदृषु नता श्वश्रूषु भक्ता भव, स्निग्धा बन्धुषु वत्सला परिजने स्मीरा (?) सपत्नीष्वपि । पत्युमित्रजने सनर्मवचना भिन्ना च तद्वैरिणि,
स्त्रीणां संवननं नतभ्रु तदिदं वित्तौषदं भर्तृषु ॥' [ अपि च
'पढम चेय विबुज्झइ सुवइपसुंतंमि परियणे सयत्ने । जेमेइ भुत्तसेसं घरं स लन्दिण सा धरिणि ।। (?) घरवावारे धरिणि सुरए वेसा बहुं व गुरुमज्झे। परियणमज्झम्मि सहि विहुरे भिच्च व मंतिव्व ॥' [
५. पत्नी, नगर या ग्राम और घर गृहस्थधर्मके अनुकूल होने चाहिए। पिता, पितामह आदि पूर्वपुरुषोंके वंशको कुल कहते हैं और मद्य, मांस आदिके त्यागको शील कहते हैं । जिनका कुल और शील अपने समान हो उनके वंशकी कन्याका अग्नि और देव आदिकी साक्षीपूर्वक पाणिग्रहणको विवाह कहते हैं। विवाहका फल शुद्ध पत्नीकी प्राप्ति है। यदि पत्नी ठीक न हो तो जीवन नरक हो जाता है। योग्य पत्नीके मिलनेसे अच्छी सन्तान प्राप्त होती है, चित्त प्रसन्न रहता है, घरके कार्य सुन्दर रीतिसे सम्पन्न होते हैं, कुलीनता और आचारविशुद्धिका संरक्षण होता है, देव-अतिथि और बन्धुबान्धओंके सत्कार में बाधा नहीं आती। जनकने सीताको उपदेश देते हुए कहा था-'स्वामीके घर आनेपर स्त्रीको खड़ा होना चाहिए। उसके भाषणमें नम्रता होनी चाहिए। दृष्टि उसके चरणोंपर होनी चाहिए। उसके बैठनेपर स्वयं उसकी सेवा करनी चाहिए। उसके सो जानेपर सोना चाहिए और उसके जागनेसे पहले शय्या त्याग देना चाहिए। हे पुत्रि ! विद्वानोंने ये कुलवधूके धर्म कहे हैं। तथा सासकी सेवा, बन्धुजनोंमें स्नेहशीलता, परिचारकोंमें वात्सल्य, सपत्नियोंमें सौहार्द, पतिके मित्रोंसे विनयपूर्ण वचनालाप और पतिके शत्रुओंसे अप्रीति ये सब पतिको अपना बनानेकी औषध है।' और भी कहा है-'जो सबसे पहले जागती है, और समस्त परिवारके सो जानेपर सोती है, सबके भोजन करनेपर स्वयं भोजन करती है वह गृहिणी है।' घरके व्यापारमें गृहिणी, सुरतमें वेश्या, गुरुजनोंके बीच में वधू , परिजनोंके मध्यमें सखी और परिजनोंके अभावमें मन्त्री और सेवकके तुल्य जो हो वह गृहिणी है।
योग्य पत्नीके साथ स्थान और घर भी योग्य होना चाहिए। स्थान न तो एकदम खुला ही होना चाहिए और न एकदम गुप्त ही होना चाहिए । अत्यन्त खुले स्थानमें पासमें किसीका वास न होनेसे चोरों आदिका भय रहता है। अत्यन्त गुप्त होनेपर एक तो मकानकी अपनी शोभा नहीं रहती, चारों ओरसे मकानोंके जमघट में वह छुप जाता है। दूसरे
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