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________________ धर्मामृत ( सागार) अथ इह दुष्षमायां सदुपदेष्टणां प्रविरलत्वमनुशोचवि कलिप्रावृषि मिथ्यादिङ्मेघच्छन्नासु विक्ष्विह। खद्योतवत्सुदेष्टारो हा द्योतन्ते शचित् कचित् ॥७॥ ___ मिथ्यादिशः-दुरुपदेशाः । दिक्षु-सदुपदेशेसु ककुप्सु च । इह-भरतक्षेत्रे । क्वचित् क्वचित् । उक्तंच 'विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुद्दण्डवाग्डम्बराः, शृङ्गारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते । ये ते च प्रतिसद्म सन्ति बहवो व्यामोहविस्तारिणो येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः ।। [ पद्म. पञ्च. १११११ ॥७॥ आलाप और उपदेशको ग्रहण कर सकनेकी योग्यताको। जिसमें वह योग्यता हो उसे संज्ञी कहते हैं। शुद्धि कहते हैं विशुद्ध परिणामको। जीवका जो परिणाम साता आदि कर्मोके बन्धमें निमित्त होता है और असाता आदि अशुभ कर्मों के बन्धका विरोधी है उसे विशुद्धि कहते हैं । ये सब सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके अन्तरंगका कारण हैं। बाह्य कारण है देशना आदि । छह द्रव्य और नौ पदार्थोके उपदेशको देशना कहते हैं। देशना देते हुए आचार्य आदिकी प्राप्ति और उपदिष्ट अर्थको प्रहण, धारण और विचारनेकी शक्तिकी प्राप्तिको देशनालब्धि कहते हैं। 'आदि' शब्दसे पूर्वजन्मका स्मरण, जिनप्रतिमाका दर्शन आदि बाह्य कारण लेना चाहिए। इन सब अन्तरंग और बाह्य कारणोंके समूहके द्वारा जिसका दर्शन मोहनीय कर्म उपशम आदि अवस्थाको प्राप्त हुआ है वह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।।६।। ऊपर सम्यक्त्वकी सामग्रीमें सच्चे गुरुके उपदेशको आवश्यक कहा है। किन्तु इस समय यहाँ सच्चे उपदेष्टाओंके कमी पर खेद प्रकट करते हुए ग्रन्थकार उनकी दुर्लभता दिखलाते हैं बड़े खेदकी बात है कि इस भरत क्षेत्रमें पंचमकाल रूपी वर्षा ऋतुमें सदुपदेशरूपी दिशाओंके मिथ्या उपदेशरूपी मेघोंसे ढक जानेपर जुगनुओंकी तरह सच्चे गुरु कहीं-कहींपर ही दिखाई देते हैं। अर्थात् जैसे वर्षाकालमें दिशाओंके मेघोंसे आच्छादित होनेपर सूर्य वगैरहके प्रकाशके अभावमें किसी-किसी स्थानपर जुगनू चमकते हुए देखे जाते हैं। वैसे ही यहाँ पंचम कालमें किसी-किसी आर्यदेशमें सच्चे उपदेशक गुरु दिखाई देते हैं। चतुर्थ कालकी तरह केवली और श्रुतकेवली कहीं भी नहीं हैं ॥७॥ विशेषार्थ-पद्मनन्दि पंचविंशतिकामें वर्तमान काल की स्थितिका चित्रण करते हुए कहा है-'विद्वत्ताके अभिमानसे सभामें अत्यन्त उद्दण्ड वचनोंका आडम्बर रचनेवाले जो व्याख्याता श्रृंगार आदि रसोंके द्वारा आनन्दको उत्पन्न करनेवाला व्याख्यान विस्तारते हैं वे तो घर-घरमें पाये जाते हैं। किन्तु जिनसे परमात्म तत्त्व विषयक ज्ञान प्राप्त हो सकता है वे अतिदुर्लभ हैं।' अतः इस कालमें जो परमात्म तत्त्व विषयक व्याख्यान करते हैं वे आदरास्पद हैं और उनसे लाभ उठाना चाहिए ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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