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दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) अन्तरङ्गबहिरङ्गनिमित्तद्वैतसंपन्नतामनुवर्णयति
आसन्नभव्यताकर्महानि-संज्ञित्व-शुद्धिभाक् ।
देशनाद्यस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥६॥ कमहानिः-मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृतीनामुपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा । शुद्धि:-विशुद्धिपरिणामः । देशनादि-आदिशब्देन जिनमहिम-जिनप्रतिबिम्बदर्शनादि ॥६॥
आगे अविद्या या अज्ञानके मूल कारण मिथ्यात्वको जड़से नष्ट करने में समर्थ सम्यग्दर्शनरूप परिणामको उत्पन्न करनेवाली सामग्री बतलाते हैं
निकट भव्यता, कर्महानि, संज्ञीपना तथा विशुद्धि परिणामवाला वह जीव जिसका मिथ्यात्व सच्चे गुरुके उपदेश आदिके द्वारा अस्त हो गया है, सम्यक्त्वको प्राप्त होता है ॥६॥
विशेषार्थ-आगममें पाँच लब्धियोंके द्वारा सम्यक्त्वकी प्राप्ति का विधान हैक्षयोपशमलब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि, और करणलब्धि। इनमें से प्रथम चार लब्धियाँ सामान्य हैं, भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी होती हैं। किन्तु अन्तिम करणलब्धि सम्यक्त्व होते समय ही होती है । जीवस्थानचूलिका आठके तीसरे सूत्रकी धवलामें कहा है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्राप्त करने योग्य जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है यह कथन तो औपचारिक है। यथार्थमें तो अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरणके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। इसीका नाम करणलब्धि है। उक्त सूत्र में केवल काललब्धिका ही निर्देश है । और उसीका अनुकरण सर्वार्थसिद्धि (२।३)में किया है । उसमें भी केवल काललब्धि आदिके निमित्तसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति बतलायी है। लिखा है कि कर्मसे वेष्टित भव्य जीव अर्धपुद्गल परावर्तकाल शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है। यदि उसका काल अधिक हो तो नहीं। इसीको ऊपर 'आसन्न भव्यता' शब्दसे कहा है। उसीको निकट भव्य कहते हैं । सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि कोंके यथायोग्य उपशम, क्षयोपशम और क्षयको कर्महानि शब्दसे कहा है। यदि सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका उपशम हो तो औपशमिक सम्यक्त्व, क्षयोपशम हो तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षय हो तो क्षायिक सम्यक्त्व होता है । औपशमिक सम्यत्क्वके दो भेद हैं-प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम । उपशम श्रेणीपर चढ़नेवाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव जो उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं उसका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है। वह सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि को ही होता है और वह भी पर्याप्तक अवस्था में ही होता है। अपर्याप्त जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्व होनेका विरोध है। वह जीव देव या नारकी या तिर्यंच या मनुष्य हो सकता है। चारों गतियोंमें उसके होने में कोई विरोध नहीं है। किन्तु वह संज्ञी होना चाहिए। संज्ञा कहते हैं शिक्षा क्रिया,
१. 'उक्तं च--आसन्नभव्यता-कर्महानि-संज्ञित्व-शुद्धपरिणामाः ।
सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्योऽप्युपदेशकादिश्च ॥'-सोम. उपा., २२४ श्लो. । २. 'खय उ वसमिय विसोही देसण पाओग्ग करगलद्धीए
चत्तारि य सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ॥'-धवला, पु. ६, प. २०५। जी. गो. ६५० गा.। ३. मनोऽवष्टम्भतः शिक्षाकियालापोपदेशवित् । येषां ते संज्ञिनो मा वृषकोरगजादयः ॥[
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