SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मामृत ( सागार) अथ मिथ्यात्वस्य त्रिविधस्याप्यनुभावमुपमानैरनुभावयति केषांचिदन्धतमसायतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकमपरेषाम् ॥५॥ केषांचित्-एकेन्द्रियादिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानाम् । अन्धतमसायते-निविडान्धकारवदाचरति, घोराज्ञानविवर्तहेतुत्वात् । ग्रहायते-विविधविकारकारित्वात् । अन्येषां-संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् । गृही [-तं ६ परोपदेशादुपात्तमतत्त्वाभिनिवेशलक्षणं चिद्वैकृतम् । तथा शल्यति-बहुदुःख-] हेतुत्वाच्चरतान्तः ( च्छरीरान्तः) प्रविष्टकाण्डादिवदाचरति । अपरेषां-इन्द्राचार्यादीनाम् ॥५॥ इस प्रकार सामान्यसे मिथ्यात्वका प्रभाव बताकर अब उसके तीनों ही भेदोंका प्रभाव उपमानके द्वारा बतला इस संसार में किन्हीं एकेन्द्रियोंसे लेकर संज्ञिपंचेन्द्रियपर्यन्त जीवोंका अगृहीत मिथ्यात्व धने अन्धकारके समान काम करता है। किन्हीं संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवोंका गृहीत मिथ्यात्व भूत के आवेशकी तरह कार्य करता है। और किन्हीं इन्द्राचार्य आदिका संशय मिथ्यात्व शरीरमें घुसे काँटे आदिकी तरह कार्य करता है ॥५॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शनके भेद आगममें दो भी कहे हैं, तीन भी कहे हैं और पाँच भी कहे हैं। सर्वार्थसिद्धि ( ८1१) में दो और पाँच भेद कहे हैं। दो भेद हैं-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । और पाँच भेद हैं -एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान । किन्तु भगवती आराधना ( गा. ५६) में मिथ्यात्वके तीन भेद कहे हैंसंशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । नैसर्गिक मिथ्यात्वको ही अनभिगृहीत या अगृहीत कहते हैं। जो मिथ्यात्व पर-के उपदेशके विना अनादिकालसे मिथ्यात्वकमका उदय होनेसे चला आता है वह नैसर्गिक या अगृहीत है । मिथ्यात्वका अर्थ है तत्त्वोंमें अरुचिरूप जीवका परिणाम । यह अगृहीत मिथ्यात्व एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों तक पाया जाता है। इसकी उपमा गहन अन्धकारसे दी है। जैसे घने अन्धकारमें कुछ भी दिखाई नहीं देता, वैसे ही जन्म-जन्मान्तरसे मिथ्यात्वमें पड़े हुए जीवोंको घोर अज्ञान छाया रहता है। बेचारे एकेन्द्रिय आदिमें तो समझने की शक्ति ही नहीं होती। जिन पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्योंमें समझ होती है वे भी नहीं समझते। बल्कि दूसरोंको भी उलटी पट्टी पढ़ाते हैं। इस तरह परोपदेश से ग्रहण किये गये मिथ्यात्वको गृहीत कहते हैं ; क्योंकि परके उपदेशको ग्रहण करनेकी शक्ति संज्ञीपंचेन्द्रियों में ही होती है इसलिए गृहीत मिथ्यात्व संज्ञीपंचेन्द्रियोंके ही होता है। इसकी उपमा भूतावेशसे दी है। जैसे किसीके सिर भूत आता है तो वह आदमी खूब उछलता, कूदता और अनेक प्रकारकी विडम्बनाएँ करता है, इसी तरह मनुष्य भी दूसरेके मिथ्या उपदेशसे प्रभावित होकर उसे फैलानेको अनेक चेष्टाएँ करता है और उसपर समझानेका कोई प्रभाव नहीं होता। तीसरा संशय मिथ्यात्व तो नामसे ही स्पष्ट है । अन्धेरे में पड़ी वस्तुको देखकर यह साँप है या रस्सी इस तरह के भ्रमको संशय कहते हैं। इसी तरह यह तत्त्व है या अतत्त्व है, सच्चा धर्म है या मिथ्या, इस प्रकारके अनिर्णयकी स्थितिको संशय मिथ्यात्व कहते हैं। इसकी उपमा शरीरमें घुसे कील-काँटेसे दी है। जैसे शरीरमें घुसा काँटा सदा तकलीफ देता है इसी तरह सन्देहमें पड़ा मिथ्यादृष्टि कुछ भी निर्णय न कर पानेके कारण मन ही मनमें दुविधामें पड़ा कष्ट उठाता है। इस तरह मिथ्यात्वके तीन प्रकार हैं ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy