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________________ दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय ) अथ विद्याविद्ययोर्बीजोपदेशार्थमाह नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्ग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्त चेतनाः ॥४॥ पशूयन्ते --- हिताहितविवेकविकलतया पशव इवाचरन्ति । यदाहु:'आहारनिद्रा-भय-मैथुनानि सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानं नराणामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ॥' [ ] ॥४॥ इस प्रकार सागारोंका लक्षण कहकर अब उनकी विषयोंमें प्रवृत्ति होने और नहीं होनेके मूल कारण जो अज्ञान और ज्ञान है, उस अज्ञान और ज्ञानके बीज मिध्यात्व और सम्यक्त्वके प्रभावको कहते हैं Jain Education International जिनका चित्त मिथ्यात्व से ग्रस्त है, वे मनुष्य होते हुए भी पशुके समान आचरण करते हैं । और जिनकी चेतना सम्यग्दर्शनके द्वारा प्रतीतिके योग्य हो गयी है अर्थात् सम्यगूदृष्टी जीव पशु होते हुए भी मनुष्य के समान आचरण करते हैं || ४ | विशेषार्थ -- पशुओं को हित-अहितका विवेक नहीं होता । और मनुष्य प्रायः विचारशील होते हैं । मिथ्यात्व कहते हैं विपरीत भावको अर्थात् जिस वस्तुका जैसा स्वरूप है उसको वैसा न मानकर उससे उल्टा मानना विपरीत अभिनिवेश है । इसे ही मिथ्यात्व कहते हैं । अतः मिथ्यादृष्टि मनुष्य मनुष्य होते हुए भी हित-अहित के विचारसे शून्य होने के कारण पशु के समान आचरण करते हैं। लोक व्यवहारमें दक्ष होते हुए भी आत्माके हितअहितका विचार उन्हें नहीं होता । इसके विपरीत सम्यक्त्व से जिनकी चेतना व्यक्त होती है। वे जाति पशु होते हुए भी मनुष्योंके समान हित-अहित के विचार में चतुर होते हैं । अर्थात् सम्यक्त्वके माहात्म्यसे पशु भी हेय और उपादेय तत्त्वके ज्ञाता हो जाते हैं फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। यहाँ पशुसे संज्ञी ही लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन संज्ञी पंचेद्रिय जीवोंको ही होता है । आगममें कहा है कि भव्य पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव कालादि लब्धिके होनेपर, जब उसके संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गल परावर्त प्रमाण शेष रहता है तब एक अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभके अन्तरकरण रूप उपशमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । यह सम्यग्दर्शन आत्माका तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम है । इसके प्रकट होते ही आत्मा में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण आते हैं। रागादि दोषोंसे चित्तवृत्तिके हटनेको प्रेशम कहते हैं। शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक कष्टोंसे भरे संसार से भयभीत होनेको संवेगे कहते हैं । सब प्राणियों के प्रति चित्तके दयालु होनेको अनुकम्पा कहते हैं । मुक्ति के लिए प्रयत्नशील पुरुषका चित्त आप्त वीतराग देव, उनके द्वारा उपदिष्ट श्रुत, व्रत और तत्त्व के विषय में 'ये ऐसे ही हैं' इस प्रकारके भावसे युक्त हो तो उसे आस्तिक्य कहते हैं । इन गुणोंसे जीवको आत्माकी प्रतीति होती है और उसीसे उसके भावोंमें यथार्थता आती है ||४|| १. ' यद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समन्ताद्व्रतभूषणम् ॥ २. शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पाद्भीतिः संवेग उच्यते ॥ ३. सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥ ४. आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंयुतम् | आस्तिक्यमास्ति कैरुक्तं युक्तं युक्तिधरेण वा ॥ ५ For Private & Personal Use Only — सोम. उपा., २२८-२३१ श्लो. ! ३ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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