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________________ धर्मामृत ( सागार) तदुक्तम् 'वपुगृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः । सर्वथाऽन्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ॥ [ इष्टोप. ८ श्लो.] ॥३॥ प्रन्थकारने अपनी संस्कृत टीकामें जिसका हमने विशेषार्थमें विवरण दिया है, सम्यगदृष्टीको भी चारित्र मोहनीय कर्मके उदयवश विषयासक्त कहा है। किन्तु जिन्होंने पूर्वजन्ममें रत्नत्रयका अभ्यास किया है और उसीके प्रभावसे जो इस जन्ममें भी तत्त्वज्ञान और देश संयममें तत्पर रहते हैं उन सम्यग्दृष्टी श्रावकोंको निरासक्त भोगी कहा है। उधर अमृतचन्द्रजी-ने कहा है कि सम्यग्दष्टिके ज्ञानवैराग्यशक्ति नियमसे होती है। क्योंकि वह अपने यथार्थ स्वरूपको जाननेके लिए 'स्व' का ग्रहण और परके त्यागकी विधिके द्वारा दोनोंके भेदको परमार्थसे जानकर अपने स्वरूपमें ठहरता है और परसे सब तरहका राग छोड़ता है। इस पर अपने भावार्थ में पं. जयचन्दजी सा० ने कहा है कि 'मिथ्यात्वके बिना चारित्र मोह सम्बन्धी उदयके परिणामको यहाँ राग नहीं कहा, इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञान वैराग्य शक्तिका अवश्य होना कहा है। मिथ्यात्व सहित रागको ही राग कहा गया है वह सम्यग्दृष्टि के नहीं है। जिसके मिथ्यात्व सहित राग है वह सम्यगदृष्टि नहीं है।' आगे समयसार गा० २०१-२०२ के भावार्थ में कहा है-अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहके उदय सम्बन्धी राग है वह ज्ञानसहित है। उसको रोगके समान मानता है। उस रागके साथ राग नहीं है। कर्मोदयसे जो राग हुआ है उसका मेटना चाहता है। इन्हीं दोनों गाथाओंकी टीकामें जयसेनाचार्यने भी रागी सम्यग्दृष्टि नहीं होता इस चर्चाको लेकर शंका-समाधान किया है। शंकाकार कहता है-आपने कहा कि रागी सम्यग्दृष्टि नहीं होता। तो चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती तीर्थकर, भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि क्या सम्यग्दृष्टि नहीं थे। इसके समाधानमें आचार्य कहते हैं उनके मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा तेतालीस कर्म प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे चतर्थ पंचम गणस्थानवी जीवोंके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होनेवाला पत्थरकी रेखा आदिके समान राग आदिका अभाव होता है। पंचम गुणस्थानवी जीवोंके अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभके उदयसे उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीकी रेखा आदिके समान रागादिका अभाव होता है। इस ग्रन्थमें पंचम गुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थानोंमें रहनेवाले वीतराग सम्यग्दृष्टियोंका मुख्य रूपसे ग्रहण है और सराग सम्यग्दृष्टियोंका गौण रूपसे ग्रहण है। यह व्याख्यान सम्यग्दृष्टिके कथनमें सर्वत्र जानना।' इस तरह अविरत सम्यग्दृष्टिको भी जो ऊपर ग्रन्थकारने विषयों में मग्न कहा है वह अपेक्षा भेदसे ही समझना चाहिए । उसके अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेसे विषयोंसे निवृत्तिका भाव नहीं होता। यद्यपि यह जानता है कि विषय हेय हैं। तथापि कर्मोदयसे प्रेरित होकर भोगता है ॥३॥ १. सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः, स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात सर्वतो रागयोगात ॥-सम, क्लेश, १३६ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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