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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) अथ भङ्गयन्तरेण भूयस्तानेवाह अनाद्यविद्यानुस्यूतां ग्रन्थसंज्ञामपासितुम् । अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषयमूच्छिताः ॥३॥ अनुस्यूतां-बीजाङ्करन्यायेन संतत्या प्रवर्तमानाम् । विषयमूच्छिता:-कामिन्यादिविषयेष्वात्मतयाऽध्यवसिताः। ही मनुष्य ज्वरसे पीड़ित होता है। उसी तरह अज्ञानरूपी दोषके कारण यह चारसंज्ञारूपी ज्वरसे पीड़ित रहता है। ये चार संज्ञाएँ हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। इन्हींकी अभिलाषाकी पूर्तिमें गृहस्थ सदा लगा रहता है। इसलिए उसे कभी अपने आत्माकी ओर दृष्टि डालनेका समय ही नहीं मिलता। परमागर्म में कहा है कि 'ज्ञानदर्शन लक्ष मणवाला एक मेरा आत्मा ही शाश्वत है-सदा रहनेवाला है। शेष सब पदार्थ बाह्य हैं उनका मेरे साथ नदी-नाव-योग जैसा है। यह आत्मज्ञान उसे होता नहीं, इसीसे वह स्त्री आदि इष्ट विषयोंमें राग करता है और अप्रिय विषयोंसे द्वेष करता है। इस राग-द्वेषके करने में ही वह सदा लगा रहता है। इसीमें उसका जीवन तक समाप्त हो जाता है ।।२।। पुनः दूसरे प्रकारसे सागारका स्वरूप कहते हैं अनादि अविद्याके साथ बीज और अंकुरकी तरह परम्परासे चली आयी परिग्रह संज्ञाको छोड़ने में असमर्थ और प्रायः विषयों में मूच्छित सागार होते हैं ॥३॥ विशेषार्थ-जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीज पैदा होता है अतः बीज अंकुरकी सन्तान अनादि है उसी तरह अज्ञान और परिग्रह संज्ञाकी भी अनादि सन्तान है। अनादि कालसे अज्ञानके कारण परिग्रह संज्ञा होती है और परिग्रह संज्ञासे अज्ञान होता है । इस तरह अज्ञानमें पड़ा गृहस्थ परिग्रहकी अभिलाषाको छोड़ नहीं पाता। इसीसे गृहस्थ प्रायः स्त्री आदि विषयोंमें 'यह मेरी भोग्य है' मैं इनका स्वामी हूँ इस प्रकार ममकार और अहंकाररूप विकल्पोंमें फंसे रहते हैं। वास्तवमें शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु ये सब सर्वथा भिन्न स्वभाववाले हैं । किन्तु यह मूढ़ इन सबको अपना मानता है । सम्यग्दृष्टि भी चारित्रमोहनीय कर्मके उदयके वशीभूत होकर ऐसा मान बैठता है। किन्तु सभी सम्यग्दृष्टि ऐसे नहीं होते । जो पूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए रत्नत्रयके माहात्म्यसे साम्राज्य आदि लक्ष्मीका उपभोग करते हुए भी तत्त्वज्ञान और देशसंयमकी ओर उपयोग रखनेके कारण भोगते हुए भी नहीं भोगते हुए की तरह प्रतीत होते हैं, उनको दृष्टि में रखकर ग्रन्थकार ने 'प्रायः' शब्दका प्रयोग किया है जो बतलाता है कि सभी गृहस्थ विषयोंमें मग्न नहीं होते, किन्तु कुछ सम्यग्दृष्टी तत्त्वज्ञानी जो देशसंयमके भी अभ्यासी होते हैं वे विषयोंको रुचिसे नहीं भोगते। किन्तु जैसे धाय पराये पुत्रका पालन करते हए भी उसे अपना नहीं मानतीं, या जैसे दुराचारिणी स्त्रीका स्वामी उसे अनासक्त भावसे भोगता है उसी तरह वे कमलिनीके पत्रपर पड़े जलकी तरह निर्लिप्त रहते हैं। यहाँ एक बात विशेष रूपसे उल्लेखनीय है कि १. 'एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥' -भावपाहुड ५९। मूलाचार ४८ । णियमसार १०२। २. 'धात्रीबालासतीनाथ-पद्मिनीचलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभाति भुञ्जानोऽपि न पापभाक् ॥' -इष्टोप. श्लो.८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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