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________________ धर्मामृत ( सागार) अथ किलक्षणा: सागारा इत्याह___अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुःसंज्ञाज्वरातुराः । शश्वत्स्वज्ञान विमुखाः सागारा विषयोन्मुखाः ॥२॥ अविद्या-अनित्याशुचिदुःखानात्मसु विपरीतख्यातिः । ज्वराः चत्वारः प्राकृतो वैकृतश्चेति द्वौ, प्रत्येक साध्योऽसाध्यश्चेति । स्वेत्यादि । यदाह 'माद्यन्मित्रकलत्रपुत्रकुतपश्रेणीरणच्छङ्कला-, बन्धध्वस्तगतेनिरुद्धवपुषः क्रोधादिविद्वेषिभिः । आस्तां ज्ञानसुधारसः किमपरं गेहोरुकारागृह क्रूरक्रोडनिवासिनो न सुलभा वार्ता वणक्ष प्रति।' [ ] ॥२॥ के बलसे उनका क्षायोपशमिक संयम परिणामरूप चारित्र अक्षुण अर्थात् निर्दोष होता है । इन अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको विशुद्ध मनोयोगपूर्वक सिर नवाकर उन गृहस्थोंके धर्मको कहूँगा जो यद्यपि संहनन आदिकी कमजोरीके कारण श्रमणोंके सर्वविरतिरूप चारित्रको पालने में असमर्थ हैं तथापि उससे अनुराग करते हैं, प्रीति रखते हैं। जिन गृहस्थोंको मुनियोंके धर्मसे अनुराग नहीं है उनका एकदेशत्याग भी सच्चा नहीं है। सर्वविरतिकी लालसाका ही नाम देशविरतिरूप परिणाम है। जिसमें मनिध धर्म अंगीकार करनेकी आन्तरिक इच्छा होती है, भले ही वह अपनी निर्बलताके कारण इस जीवनमें मुनि न बन सके किन्तु वही निष्ठापूर्वक श्रावक धर्मका पालन कर सकता है ।।१।। आगे सागार या गृहस्थका लक्षण कहते हैं अनादि अविद्यारूपी दोषसे उत्पन्न हुई चार संज्ञारूपी ज्वरसे पीड़ित, सदा आत्मज्ञानसे विमुख और विषयों में उन्मुख गृहस्थ होते हैं ॥२॥ विशेषार्थ-अगार कहते हैं घरको। 'घर' कहनेसे सभी परिग्रह आ जाती हैं। जो अगारमें रहते हैं वे सागार कहे जाते हैं। और जिन्होंने घरको त्याग दिया वे अनगार या श्रमण कहे जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्रके 'अगार्यनगारश्च' (७।१९ ) सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें यह शंका उठायी गयी है कि यदि घरमें रहनेवालेको गृहस्थ और घर में न रहनेवालेको अनगार या मुनि कहते हैं तो उलटा भी हो सकता है-मुनि किसी शून्य घरमें या मन्दिरमें ठहरे हों तो वे सागार कहे जायेंगे। और किसी कारणसे कोई गृहस्थ घर छोड़कर जंगलमें जा बसा तो वह अनगार कहा जायेगा। इसके समाधानमें कहा गया है कि यहाँ घरसे भावघर लिया गया है। चारित्रमोहनीयके उदयमें घरसे सम्बन्ध रखनेके परिणामको भावघर कहते हैं। जिसके भावोंमें घर है वह गृहस्थ है भले ही वह वनमें चला जाये। और जिसके भावसे घर निकल गया वह यदि किसी शन्यघर या देवालयमें ठहर गया है फिर भी वह अनगार ही है। यहाँ सागारसे भावागारी ही लिया गया है। यह उसके तीन विशेषणोंसे स्पष्ट होता है । अनित्य पदार्थों को स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धको नित्य मानना, अशुचि शरीर आदिको शुचि मानना, दुःखदायी परिवार आदिको सुखदायी मानना और जो परवस्तु कभी अपनी नहीं हो सकती शरीर आदि, उन्हें अपना मानना, इसका नाम अविद्या या अज्ञान है। इस अज्ञानका आदि नहीं, अतः अनादि है। अनादिकालसे जीवके साथ यह अज्ञानरूपी दोष लगा है। शरीरमें जब वात, पित्त और कफ विषम हो जाते हैं तो उसे दोष कहते हैं । इस दोषके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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