________________
दशम अध्याय (प्रथम अध्याय )
[अथ चतुर्थाध्याये
सुदृग्बोधो गलवृत्तमोहो विषयनिस्पृहः ।
हिंसादेविरतः कात्या॑द्यतिः स्याच्छावकोंऽशतः ] इत्युक्तमतो मध्यमङ्गलविधानपूर्वकं विनेयान् प्रति सागारधर्म प्रतिपाद्यतया प्रतिजानीते
अथ नत्वाहतोऽक्षूणचरणान् श्रमणानपि ।
तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ॥१॥ अथ मङ्गलार्थे अधिकारे वा । इतः सागारधर्मोऽधिक्रियत इत्यर्थः। नत्वा-शिरःप्रह्वीकरणादिना ६ विशुद्धमनोनियोगेन च पूजयित्वा । अक्षूणचरणान्-अरुणं संपूर्ण निर्दोषं वा चरणं चारित्रं येषां तान् । तद्धर्मरागिणां-तेषां श्रमणानां धमें सर्वविरतिरूपे चारित्रे रागिणां संहननादिदोषादकुर्वतामपि प्रीतिमताम् । यतिधर्मानुरागरहितानामगारिणां देशविरतेरसम्यग्रूपत्वात् । सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः। ९ धर्मः-एकदेशविरतिलक्षणं चारित्रम् । प्रणेष्यते-प्रतिपादयिष्यतेऽस्माभिः ॥१॥
अनगार धर्मामृतके चतुर्थ अध्यायमें कहा है कि जिस जीवका ज्ञान जीवादि तत्त्वोंके विषयमें हेय, उपादेय और उपेक्षणीय रूपसे जाग्रत् है, तथा यथायोग्य क्षयोपशमरूपसे चारित्र मोहनीय कर्म हीयमान है और जो देखे हुए, सुने हुए और भोगे हुए भोग-उपभोगोंमें निरभिलाषी है वह यदि हिंसा आदि पाँच पापकर्मोंसे पूरी तरहसे विरत है तो उसे मुनि या यति या श्रमण कहते हैं और यदि वह एकदेशसे विरत है तो उसे श्रावक कहते हैं । अतः धर्मामृत ग्रन्थके मध्य में मंगलाचरणपूर्वक सागार धर्मामृतका कथन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं
___ सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्रके धारक अर्हन्तोंको और निरतिचारचारित्रके धारक श्रमणोंको भी नमस्कार करके उन श्रमणोंके धर्म में प्रीति रखनेवाले श्रावकों या गृहस्थोंके धर्मको कहूँगा ॥१॥
विशेषार्थ-इलोकके प्रारम्भमें 'अर्थ' शब्द मंगलवाचक या अधिकारवाचक है । जो सूचित करता है कि यहाँसे सागारधर्मका अधिकार है। 'अक्षुण' शब्दका अर्थ सम्पूर्ण भी है और निरतिचार या निर्दोष भी है । अर्हन्त भी अक्षूणचरण है और श्रमण भी अक्षण चरण है। समस्त मोहनीय कर्मका क्षय होनेसे प्रकट हुआ चरण अर्थात् यथाख्यातचारित्र
पूर्ण नित्य और निर्मल होता है। अतः अहन्त तीर्थकर परमदेव अक्षण चरण है। तथा जो श्रम करते हैं अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर तप करते हैं उन्हें श्रमण कहते हैं अतः श्रमणसे आचार्य, उपाध्याय और साधु लिये जाते हैं। श्रमण भी अक्षण चरण होते हैं-भावनाविशेष १. 'स्फुरद्बोधो गलवृत्तमोहो विषयनिस्पृहः । हिंसादेविरतः कात्ाद्यतिः स्याच्छावकोंऽशतः॥
-अनगार. ४।२१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org