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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) अथात्रेदानी भद्रकाणामपि पुरुषाणां दुर्लभत्वमालोचयति नाथामहेऽद्य भद्राणामप्यत्र किमु सदृशाम् । हेम्न्यलभ्ये हि हेमाश्मलाभाय स्पृहयेन्न कः ॥८॥ नाथामहे-भद्रका अपि जीवा भूयासुरित्याशास्महे । 'आशिषि नाथ' इत्यात्मनेपदम् । अलभ्येलब्धमशक्ये ॥८॥ अथ भद्रकं लक्षयित्वा तस्यैव द्रव्यतया देशनार्हत्वमाह कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन् । भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥९॥ अपि-न केवलमुभयोर्मध्यस्थ इत्यर्थः। अद्विषन्-द्वेषविषयमकुर्वन् । द्रव्यत्वात्-आगामिसम्यक्त्वगुणयोग्यत्वात् । अभद्रः-कुधर्मस्थः । सद्धर्म गुरुकर्मतया द्विषन्नित्यर्थः । तद्विपर्यासात्-आगामिसम्यक्त्वगुणयोग्यत्वाभावात् ॥९॥ इस भरत क्षेत्र में पंचमकालके प्रभावसे उपदेष्टा गुरुओंकी तरह उपदेश सुननेवालोंके चित्त भी दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेसे वे भी उपदेशके पात्र नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भद्र पुरुषोंसे यह आशा करते हैं कि वे उपदेशके पात्र होवें इस समय इस क्षेत्रमें हम भद्र पुरुषोंसे भी आशा करते हैं कि वे उपदेशके योग्य हों। तब सम्यग्दृष्टियोंकी तो बात ही क्या है ; क्योंकि सुवर्णके अप्राप्य होनेपर सुवर्णपाषाण कौन प्राप्त करना नहीं चाहता ॥८ विशेषार्थ-आजके समयमें जैसे सच्चे उपदेष्टा दुर्लभ हैं वैसे ही सच्चे श्रोता भी दुर्लभ हैं। श्रोताओंका मन भी मिथ्यात्वसे ग्रस्त है। ऐसी स्थितिमें यदि भद्र भी श्रोता मिले तो उत्तम है । और यदि सम्यग्दृष्टि श्रोता मिले तब तो अतिउत्तम है। किन्तु उनके अभावमें शास्त्रचर्चा ही बन्द कर देना उचित नहीं है । सम्यग्दृष्टि सुवर्णके तुल्य है तो भद्र सुवर्णपाषाणके तुल्य है। सुवर्णपाषाण उसे कहते हैं जिसमें से पाषाणको अलग करके सोना निकाला जाता है। तो जो भद्र है वह कल सम्यग्दृष्टी बन सकता है। अतः उसे धर्मोपदेश करना चाहिए ॥८॥ आगे भद्रका लक्षण कहकर उसे ही द्रव्यरूपसे उपदेशके योग्य बतलाते हैं मिथ्याधर्ममें आसक्त होते हुए भी समीचीन धर्मसे द्वेष रखनेका कारण जो मथ्यात्व कर्म है, उसके उदयकी मन्दतासे जो समीचीन धर्मसे द्वेष नहीं करता, उसे भद्र कहते हैं। वह उपदेशका पात्र है, क्योंकि उसमें भविष्य में सम्यक्त्व गुणके प्रकट होनेकी योग्यता है। इससे विपरीत होनेसे अर्थात् आगामीमें सम्यक्त्व गुण प्रकट होनेकी योग्यता न होनेसे अभद्र पुरुष उपदेशका पात्र नहीं है ॥९॥ विशेषार्थ-मिथ्या धर्मसे प्रेम रखनेवाले भी दो प्रकारके होते हैं-एक वे जो समीचीन धर्मसे द्वेष नहीं रखते। उन्हें ही भद्र कहते हैं। और जो समीचीन धर्मसे द्वेष रखते हैं उन्हें अभद्र कहते हैं। भद्र उपदेशका पात्र है क्योंकि उसके मिथ्यात्वके उदयकी मन्दता है तभी वह समीचीन धर्म सुनानेपर सुनता है। किन्तु अभद्र तो सुनना ही नहीं चाहता। उसके अभी तीव्र मिथ्यात्वका उदय है। अतः जिन्होंने जैनकुलमें जन्म लिया है वे ही केवल उपदेशके पात्र नहीं हैं। विधर्मी, मन्दकषायी जीवों को भी धर्म सुनाना चाहिए। ऊपर जो 'कुधर्मस्थोऽपि' में अपि शब्द दिया है उसका यह अभिप्राय है कि जो पुरुष समीचीन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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