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________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) ३५३ 'खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पश्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥' [र. श्रा. १२८ ] अत्रैवं संबन्धः कर्तव्यः-सद्रत्नत्रयभावनापरिणतः सन् प्राणांस्त्यक्त्वा शिवी स्यात् । अथवा ३ पञ्चनमस्कारस्मृतिर्यथा भवत्येवं प्राणांस्त्यक्त्वा शिवी स्यादेतच्च वा शब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् । शिवी स्यातअशिवः शिवः संपद्यत । अष्टजन्मान्तरे-अष्टानां भवानां मध्ये। उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्याराधनानुभागादत्र विभागः । तथा ह्यागमः 'कालाई लहिऊणं छित्तणं अट्रकम्म संखलयं । केवलणाणपहाणा केई सिज्झंति तम्हि भवे ॥ आराहिऊण केई चउव्विहाराहणाइ जं सारं । उव्वरियसेसपुण्णो सव्वट्ठणिवासिणो हुंति ।। होज्ज जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं । सत्तट्ठ भवे गंतु ते चिय पावंति णिव्वाणं ॥ [ आरा. सार. १०७-१०९] अपि च 'येऽपि जघन्यां तेजोलेश्यामाराधनामुपनयन्ति । तेऽपि च सौधर्मादिषु भवन्ति देवाः सुकल्पस्थाः ॥' अथवा 'ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुट्यन्मोहस्य योगिनः । चरमाङ्गस्य मुक्ति: स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ॥' [ ] उनमें भी मुनिके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन भेद हैं। उत्कृष्ट आराधक हैं चौदहवें गुणस्थानमें समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानमें आरूढ़ अयोगकेवली जिन । वे तो नियमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। साधकका एक विशेषण दिया है-'अलङ्कर्मीणनिर्यापकन्यस्तात्मा' । उत्कृष्ट साधकके पक्ष में उसका अर्थ होता है-संसार समद्रसे पार उतारनेरूप कार्यमें समर्थ निर्यापकपर जिसने आत्माको अर्पित कर दिया है। व्यवहार नयसे यह निर्यापक समाधिमरण करानेवाले आचार्य होते हैं । किन्तु निश्चयसे तो शुद्ध स्वात्मानुभूतिरूप परिणामके उन्मुख आत्मा ही सच्चा निर्यापक है क्योंकि वही अपनेको दुःख और उसके कारणोंसे छुड़ाता है। कहा भी है.-'आत्मा ही अपने में समीचीन अभिलाषा करता है, वही इष्टका ज्ञापक और अपनेको हितमें लगाता है अतः आत्माका गुरु आत्मा ही है' । अतः मुमुक्षु आत्मा अपना सब भार अपनेपर ही लिये होता है। तभी तो मोक्ष प्राप्त करता है। मध्यम आराधक मुमुक्षु मुनि संवरके साथ होनेवाली निर्जरामें समर्थ रत्नत्रयकी भावनामें लीन होकर अहमिन्द्र आदि पद प्राप्त करता है । और जघन्य आराधक मुनि पंचनमस्कारका चिन्तन करते हुए मरकर आठवें भवमें मोक्ष प्राप्त करता है । आगममें कहा है-'निकट भव्य कालादि सामग्रीको प्राप्त करके आठ कर्मोकी श्रृंखलाको तोड़कर केवलज्ञानको प्राप्त करके उसी भवमें मुक्ति प्राप्त करते हैं । कोई चारों प्रकारको आराधनाके द्वारा सारभूत आत्माकी आराधना करके पुण्य प्रकृतियों के शेष रहनेसे सर्वार्थसिद्धि में जन्म लेते हैं।' जिन क्षपकोंके चारों आराधना जघन्य होती हैं वे भी सात-आठ भवमें निर्वाणको प्राप्त करते हैं। और भी कहा है-'जो तेजोलेझ्यासे युक्त जघन्य आराधनाको करते हैं वे सौधर्मादि कल्पोंमें देव होते हैं। ध्यानके प्रकर्ष अभ्याससे जिनका मोह नष्ट हो जाता है उन चरम शरीरी योगियों सा.-४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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