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________________ ३५२ धर्मामृत ( सागार) अथाध्यायार्थमशेषमुपसंगृह्णन्नाराधकस्याराधनासहितमरणफलविशेषमुपदिशति संलिख्येति वपुः कषायवदलङ्कर्मीणनिर्यापक न्यस्तात्मा श्रमणस्तदेव कलयंल्लिङ्गं तदीयं परः । सद्रत्नत्रयभावनापरिणतः प्राणान् शिवाशाधर स्त्यक्त्वा पञ्चनमस्क्रियास्मृति शिवी स्यादष्टजन्मान्तरे ॥११॥ अलंकर्मीण:-कर्मसमर्थः निर्यापकः । व्यवहारेण सुस्थिताचार्यो निश्चयेन च शुद्धस्वात्मानुभूतिपरिणामोन्मुख आत्मा, तस्यैव दुःखाददुःखहेतोर्वा आत्मनो निष्काशकत्वोपपत्तेः । यदाह 'स्वस्मिन्सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥' [ इष्टोप. ३४ ] तदेव-पूर्वगृहीतमौत्सर्गिकमेव लिङ्गम् । तदुक्तं 'औत्सर्गिकलिङ्गभृतस्तदेव चौत्सर्गिकं भवेल्लिङ्गम् । अपवादलिङ्गसङ्गतवपुषोऽप्यौत्सर्गिकं शस्तम् ॥' [ ] परः-श्रावकोऽन्यो वा सदृष्ट्यादिः । सदित्यादि। अयमुत्कृष्टपक्षः । पञ्चेत्यादि क्रियाविशेषणम् । पुनरशक्त्यपेक्षया। प्रायेणदंयुगीनानां बहिर्जल्पपरत्वेनाराधकोपलम्भात् । स्मृतिरत्र मनस्यारोपणमुच्चारणं १५ च । यत्स्वामी अब इस अध्यायमें वर्णित कथनका उपसंहार करते हुए आराधकके आराधनाके साथ मरणका विशेष फल कहते हैं [समाधिमरण मुनि भी करते हैं और श्रावक भी करते हैं। आराधक मुनियोंकी तीन कोटियाँ हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इस तरह चारों आराधकोंका इसमें कथन है जो इस प्रकार है उक्त प्रकारसे कषायकी तरह शरीरको कृश करके अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर तपके द्वार कपाया और शरीरको कृश करके संसाररूपी समुद्रसे पार करने में समर्थ निर्यापकके ऊपर आत्माको समर्पित करके पूर्व में गृहीत औत्सर्गिक लिंग अर्थात् जिनरूपताको धारण करनेवाला मुमुक्षु श्रमण गुणस्थानोंके अनुसार निश्चय रत्नत्रयका अभ्यास करता हुआ चतुर्दश गुणस्थानवर्ती अयोगी होकर अन्तिम समयमें समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यानपर आरूढ़ होकर परम मुक्त हो जाता है। ( यह उत्कृष्ट आराधनाके पक्ष में व्याख्या है। अब मध्यम आराधनाके पक्ष में व्याख्या करते हैं-) मोक्षको आशा रखनेवाला मुमुक्षु श्रमण आचेलक्य आदि चार प्रकारके लिंगको धारण करता हुआ सत् अर्थात् संवरके साथ होनेवाली निर्जरामें समर्थ समीचीन रत्नत्रय भावनामें उपयुक्त हो प्राणोंको छोड़कर शिवी अर्थात् इन्द्रादि पदकी प्राप्तिरूप अभ्युदयों को प्राप्त होता है। ( जघन्य आराधनाके पक्षमें व्याख्या इस प्रकार है-) पूर्व व्याख्यात विशेषणोंसे विशिष्ट श्रमण पंचनमस्कार मन्त्रके स्मरणपूर्वकके धारक प्राणोंको त्यागकर यथायोग्य आठ भवोंके भीतर मोक्षको प्राप्त करता है। यहाँ तक श्रमणधर्म मुनियोंके प्रति फल कहा। शेषके लिए आगे कहते हैं-श्रावक या अन्य सम्यग्दृष्टि श्रमण सम्बन्धी लिंगकी भावनापूर्वक पंचनमस्कार मन्त्रका स्मरण करते हुए प्राणोंको त्यागकर यथायोग्य आठ भवोंमें शिवी होता है ॥१११॥ शेषार्थ-पं. आशाधरजीने इस इलोककी अपनी टीकामें चार प्रकारके आराधकोंको लक्ष्यमें रखकर व्याख्यान किया है। मुनि और श्रावकके भेदसे आराधकके दो भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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