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________________ ३५१ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) महुरिच्छामणुशोऽपि प्रणिहत्य श्रुतपरः परद्रव्ये । स्वात्मनि यदि निर्विघ्नं प्रतपसि तदसि ध्रुवं तपसि ।।१०९।। स्पष्टम् ॥१०९।। नैराश्यारब्धनसंग्यसिद्धसाम्यपरिग्रहः। निरुपाधिसमाधिस्थः पिवानन्दसुधारसम् ॥११०॥ स्पष्टम् ॥११॥ कहते हैं। अतः शुद्ध आत्माका श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन, उसीका अनुभवन निश्चय सम्यज्ञान और उसीमें स्थिति निश्चय सम्यकचारित्र है। ऐसा ही आचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें कहा है-'आत्माका विनिश्चय सम्यग्दर्शन, आत्माका परिज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मामें स्थिति सम्यक्चारित्र है।' रत्नत्रयकी आराधनाका साधक भेदरूपसे आराधना करता है। वह यद्यपि यह जानता है कि आत्मा सम्यग्दर्शनादिरूप ही है। सम्यग्दर्शनादि आत्मासे भिन्न नहीं है। तथापि उनकी आराधना भेदरूपसे करता है क्योंकि अभी उसमें उस प्रकारकी तल्लीनता नहीं आयी है। इसीसे साधकको भेदरत्नत्रयपर कहा है। भेदरत्नत्रयको व्यवहाररत्नत्रय भी कहते हैं क्योंकि रत्नत्रयमय आत्मामें भेद करना व्यवहारनय है। अतः साधककी भेदपरक दृष्टिको अभेदकी ओर ले जाकर उसे एकमात्र आत्माकी आराधनामें विमग्न करनेका प्रयत्न आचार्य करते हैं ॥१०८।। पुद्गल आदि परद्रव्यमें थोड़ी-सी भी इच्छाको अत्यन्त नष्ट करके बार-बार श्रुतज्ञान नारूप परिणत होकर यदि स्वात्मामें निर्विघ्न रूपसे प्रकाशमान हो तो निश्चित रूपसे तुम साक्षात् मोक्षके उपायभूत तपमें रत हो ॥१०९॥ विशेषार्थ-उक्त कथनसे यह जानना चाहिए कि निश्चय आराधनाके चार प्रकार इष्ट हैं - दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तपाराधना । तीन निश्चय आराधनाओंका स्वरूप ऊपर कहा है । और चौथी निश्चय आराधनाका स्वरूप यहाँ कहा है ॥१८९।। अब व्यवहार और निश्चय आराधनाके द्वारा साध्य जो परम आनन्दका लाभ है, वह प्रकट हो इस प्रकार आशीर्वादके द्वारा निर्यापकाचार्य क्षपकका उल्लास बढ़ाते हैं हे आराधक ! जीवन, धन आदिकी आकांक्षाका निग्रह करके प्रारम्भ किये गये बहिरंग अन्तरंग परिग्रहके त्यागरूप नैसंग्यसे जिसने परमसामायिककी स्वीकृतिको निष्पन्न किया है ऐसे तुम ध्याता, ध्यान और ध्येयके विकल्पसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें स्थित होकर आनन्दरूप अमृतका पान करो ॥११०।। विशेषार्थ-परमसामयिक चारित्र स्वीकार करनेके लिए अन्तरंग परिग्रहका त्यागरूपनिःसंगभाव आवश्यक है और उससे भी पहले सब तरहकी सांसारिक कामनाएँ त्यागना आवश्यक है। इस तरह परमसामायिकमें सिद्ध हो जानेपर निर्विकल्प समाधिका द्वार खुलता है और उससे ही मनुष्य आत्मानन्दका पान करने में समर्थ होता है। हे आराधक ! तुम्हें वह प्राप्त हो यही आशीर्वाद है ॥११०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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