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________________ ३५० धर्मामृत ( सागार ) अचेन्नृतिर्यग्देवोपसृष्टासंक्लिष्टमानसाः । सुसत्वा वहवोऽन्येऽपि किल स्वार्थमसाधयन् ॥१०६॥ किल-आगमे ह्येवं श्रूयते ॥१०६॥ तत्त्वमप्यङ्ग सङ्गत्य निःसङ्गेन निजात्मना । त्यजाङ्गमन्यथा भूरि भवक्लेशैर्ल पिष्यसे ।।१०७।। अन्यथा । यदाह 'विराद्धे मरणे देव दुर्गतिर्दूरबोधिता। अनन्तश्चापि संसारः पुनरप्यागमिष्यति ॥' [ ॥१०७॥ श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धः प्रमदवपुरुपादेय इत्याञ्जसी दृक, तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवनं विग्रहादेश्च संवित् । तत्रैवात्यन्ततृप्त्या मनसि लयमितेऽवस्थितिः स्वस्य चर्या, स्वात्मानं भेदरत्नत्रयपर परमं तन्मयं विद्धि शुद्धम् ॥१०८॥ तन्मयं-निश्चयरत्नत्रयात्मकम् ॥१०८॥ जिनदीक्षा ले ली तब विद्युच्चरने भी अपने साथियोंके साथ जिनदीक्षा ले ली। भ्रमण करते हुए यह संघ मथुराके बाहर एक उद्यानमें ठहरा। लोगोंने समझाया कि यहाँ रातको ठहरनेवाला जीवित नहीं रहता। किन्तु संघने सन्ध्या हो जानेसे वहीं ध्यान लगा लिया। जम्बूचरितमें तो लिखा है कि भूतोंके उपद्रवसे सभीका प्राणान्त हो गया और वहाँ उनकी स्मृतिमें पाँच सौ स्तूप बने, जिनका जीर्णोद्धार अकबरके समय में साहु टोडरने कराया था ॥१०५।। अचेतन, मनुष्य, तिथंच और देवोंके द्वारा किये गये उपसर्गसे जिनका चित्त रागद्वेष-मोहसे आविष्ट नहीं हुआ और जो शुद्ध स्वात्माके ध्यानमें लीन रहे, ऐसे अन्य भी बहुतसे महासात्त्विक पुरुष मोक्ष रूप पुरुषार्थको साधन करते हुए; ऐसा आगममें सुना जाता है ॥१०६।। __यतः इस प्रकार भगवान् शिवभूति आदि मुमुक्षु महानुभावोंने अत्यन्त उपसर्ग आनेपर भी मोक्षकी साधना की, इसलिए हे महात्मन् ! तुम भी द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे रहित अपने चिद्रूपके साथ एकत्वको प्राप्त होकर शरीरको त्यागो। संक्लेशके आवेश आदि अन्य प्रकारसे शरीरको त्यागनेपर प्रचुर सांसारिक दुःखोंसे पीड़ित होना पड़ेगा ॥१८७॥ द्रव्यकर्म और भावकर्मसे रहित आनन्दरूप स्वात्मा ही उपादेय है इस प्रकारकी श्रद्धा निश्चय सम्यग्दर्शन है। उसी शुद्ध और आनन्दरूपसे उपादेय स्वात्माका ही स्वसंवेदनके द्वारा मन, वचन, कायसे भिन्न अनुभव करना निश्चय सम्यग्ज्ञान है। और उक्तरूपसे अनुभूयमान निज आत्मामें ही मनके लीन होनेपर आत्माको अवस्थितिको निश्चय चारित्र कहते हैं। हे व्यवहार रत्नत्रय प्रधान आराधक श्रेष्ठ ! परम प्रकर्षशुद्धिको प्राप्त स्वात्माको निश्चय रत्नत्रयमय जान ॥१०८॥ विशेषार्थ-आगममें निश्चयनय और व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका स्वरूप कहा है । स्वाश्रित कथनको निश्चय और पराश्रित कथनको व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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