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________________ सप्तदश अध्याय (अष्टम अध्याय) ३४९ शिरीषसुकुमाराङ्गः खाद्यमानोऽतिनिर्दयम् । शृगाल्या सुकुमारोऽसून विससर्ज न सत्पथम् ।।१०४।। सत्पथं-शुद्धस्वात्मध्यानरूपम् ॥१०४॥ तीवदुःखैरतिक्रुद्धभूतारब्धैरितस्ततः । भग्नेषु मुनिष प्राणानौज्झद्विद्युच्चरः स्वयुक् ॥१०५।। स्वयुक-स्वात्मानं समादधानः सन् ॥१०५।। तिर्यंचकृत उपसर्ग सहने में उदाहरण देते हैं शिरीषके फूलके समान कोमल शरीरवाले सुकुमार मुनिने सियारनीके द्वारा अत्यन्त निर्दयतापूर्वक खाये जानेपर प्राण छोड़ दिये, किन्तु शुद्ध स्वात्माके ध्यानरूप मोक्षमार्गको नहीं छोड़ा ॥१०४॥ विशेषार्थ-सुकुमाल मुनिकी कथा अति प्रसिद्ध है। ये इतने सुकुमार थे कि दीपकका प्रकाश सहन नहीं कर सकते थे। कमलके फूलोंमें सुवासित किये गये सुगन्धित महीन चावलोंका भात खाते थे । जब राजा श्रेणिक इनकी सुकुमारताकी ख्याति सुनकर इन्हें देखने आया तो इनकी माताने राजा श्रेणिककी आरती उतारी । दीपककी लौ देखकर इनकी आँखोंमें जल भर आया। सदा रत्नोंके प्रकाशमें रहनेसे इन्होंने कभी दीपक नहीं देखा था। किसी ज्ञानी मुनिने कहा था कि तुम्हारा पुत्र साधु होगा । इसी भयसे सुकुमारकी माता सुकुमारको बहुत यत्नसे रखती थीं। उसने सुकुमारके लिए सुन्दर सुरूप बत्तीस पत्नियाँ चुनी थीं। फिर भी सुकुमार एक दिन कमन्दके द्वारा महलसे बाहर हो गये और साधु बनकर तपस्यामें लीन हो गये। उनके पूर्वभवकी भ्रातृपत्नी जो मरकर सियारनी हुई थी और जिसने निदान किया था कि जिस पैरसे तुमने मुझे मारा है उसीको खाऊँगी, अपने बच्चोंके साथ सुकुमारके कोमल पैरोंसे झरते रक्तके चिह्नोंको चाटती हुई ध्यानस्थ सुकुमार तक पहुँच गयी और उनको खाने लगी। धीरवीर सुकुमार फूलसे भी सुकुमार होते हुए विचलित नहीं हुए। और प्राण त्यागकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुए ।।१०४॥ देवकृत उपसर्ग सहनमें दृष्टान्त देते हैं अत्यन्त क्रुद्ध भूतोंके द्वारा आरम्भ किये तीव्र दुःखोंसे मुनियोंके इधर-उधर भाग जानेपर आत्मलीन विद्युच्चरने प्राण त्यागे ॥१०५।। विशेषार्थ-विद्युच्चर राजपुत्र था । कुसंगतिमें पड़कर चोरीकी आदत पड़ गयी थी। इसी अपराधमें पिताने देशनिकालेका दण्ड दिया। तब पाँच सौ चोरोंके गिरोहके साथ राजगृही पहुँचा। उस समय राजगृही नगरीका वैभव अपार था। वहाँ वह नगरश्रेष्ठीके पुत्र जम्बूकुमारके महलपर चोरी करने गया और कमन्दके द्वारा महलपर चढ़कर एक झरोखेसे अन्दर झाँका । एक सुन्दर युवा आठ सुन्दरियोंसे घिरा हुआ बैठा था। वातोलापसे ज्ञात हुआ ये आठों उसकी पत्नियाँ हैं, जिन्हें वह आज ही ब्याहकर लाया है और कह रहा है कि हमारा-तुम्हारा सम्बन्ध कुछ घण्टोंका ही शेष है। प्रातःकाल होते ही मैं वनमें जाकर जिनदीक्षा ग्रहण करूँगा । यह सब सुनकर विद्युच्चर चोरी करना तो भूल गया और उनकी बातों में उलझ गया। उसे विश्वास ही नहीं होता था कि कोई युवा एकसे एक सुन्दर नारियों और प्रचुर धन-सम्पदाका त्याग कर सकता है। प्रातःकाल होते ही जम्बूकुमार वनको चले तो पीछे-पीछे विद्युच्चर भी चला। जब जम्बूकुमारने वस्त्राभरण त्यागकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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