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________________ ३४८ धर्मामृत ( सागार) यावद् गृहीतसंन्यासः स्वं ध्यायन् संस्तरे वसेः । तावनिहन्याः कर्माणि प्रचुराणि क्षणे क्षणे ॥१००। स्पष्टम् ॥१०॥ पुरुप्रायान् बुभुक्षादि परीषहजये स्मर । घोरोपसर्गसहने शिवभूतिपुरःसरान् ॥१०१॥ पुरुप्रायान्-वृषभदेवादीन् ॥१०१॥ तृणपूलबृहत्पुजे संक्षोभ्योपरि पातिते। वायुभिः शिवभूतिः स्वं ध्यात्वाभूदाशु केवलो ॥१०२॥ स्पष्टम् ॥१०२॥ न्यस्य भूषाधियाङ्गेषु संतप्ताः लोहशृंखलाः। द्विट्पक्ष्यैः कोलितपदाः सिद्धा ध्यानेन पाण्डवाः ॥१०३॥ द्विटपक्ष्यैः-कौरवपक्षभवः । पाण्डवाः-साक्षाधुधिष्ठिरभीमसेनार्जुनास्त्रयः सिद्धाः । नकुलसहदेवयोः सर्वार्थसिद्ध चादिजन्मनो व्यवधानात् ॥१०३॥ ___ भक्तप्रत्याख्यान संन्यासको स्वीकार करके आत्माका ध्यान करते हुए तुम जबतक संथरे पर विराजमान हो तबतक प्रतिसमय प्रचुर कर्मोंका अवश्य क्षय करो ॥१००।। भूख-प्यास आदिकी परीषहको जीतनेमें भगवान ऋषभदेव आदिका स्मरण करो जिन्हें छह मास तक योगसाधनके पश्चात भी आहार नहीं मिला था। और घोर उपसर्ग सहन करने में शिवभूति आदिको स्मरण करो ॥१०१।। अचेतनकृत उपसर्ग सहने में दृष्टान्त देते हैं वायुके द्वारा सब ओरसे चलायमान करके तृणके पूलोंका बहुत भारी ढेर ऊपर गिरा देनेपर शिवभूति मुनि आत्माका ध्यान करके शीघ्र ही केवलज्ञानी हो गये ॥१०२।। विशेषार्थ-शिवभूति मुनि ध्यानमग्न थे। पास में ही तृणके पूलोंका बड़ा भारी ढेर था। जोरकी आँधीसे वह ढेर मुनिके ऊपर आ गिरा। किन्तु मुनि इस अचेतनकृत उपसर्गसे विचलित नहीं हुए और आत्मध्यानमें लीन रहे। उन्हें तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गयी ॥१०२।। मनुष्यकृत उपसर्ग सहनमें दृष्टान्त देते हैं कौरव पक्षके सम्बन्धियोंके द्वारा पैरोंको भूमिके साथ कीलों द्वारा जड़ित करके पाण्डवोंके कण्ठ आदि अंगोंमें अग्निमें तपाकर लाल की हुई लोहेकी साँकलोंको भूषणोंके रूपमें पहनानेपर पाण्डव ध्यानके द्वारा मुक्त हो गये ॥१०३॥ विशेषार्थ-महाभारतके युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद बन्धु-बान्धवोंके विनाशसे विरक्त होकर पाँचों पाण्डवोंने जिनदीक्षा धारण कर ली और आत्मध्यानमें लीन हो गये। कौरव पक्षके उनके शत्रुओंने वैर चुकानेका यह अच्छा अवसर माना। पहले तो उन्होंने पाण्डवोंके पैरोंको कीलोंके द्वारा जमीनमें कीलित कर दिया कि भाग न सके। फिर हम तुम्हें आभूषणोंसे सम्मानित करते हैं यह कहकर आगसे सन्तप्त लोहेकी साँकले भूषणकी तरह हाथ, पैर, कण्ठ आदिमें पहना दी। पाण्डव जरा भी विचलित नहीं हुए और आत्मध्यानमें लीन रहे । युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम तो मुक्त हुए और नकुल तथा सहदेव सर्वार्थसिद्धिमें गये ॥१०३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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