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________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) ३४७ अथ ज्ञानसारैरित्येतत्प्रपञ्चयितु मुत्तरप्रबन्धमाह दुःखाग्निकोलैराभीलनकादिगतिष्वहो। तप्तस्त्वमङ्गसंयोगात् ज्ञानामृतसरोऽविशन् ॥१६॥ कीला:-ज्वालाः । आभीले:-कष्टैः ॥१६॥ इदानीमुपलब्धात्मदेहभेदाय साधुभिः । सदानुगृह्यमाणाय दुःखं ते प्रभवेत्कथम् ॥९७॥ स्पष्टम् ॥१७॥ दुःखं संकल्पयन्ते स्वे समारोप्य वपुर्जडाः । स्वतो वपुः पृथक्कृत्य भेदज्ञाः सुखमासते ॥९॥ स्वे-आत्मनि ॥९८॥ परायत्तेन दुःखानि बाढं सोढानि संसृतौ। त्वयाद्य स्ववशः किंचित् सहेच्छन्निर्जरां पराम् ॥२९॥ परां-उत्कृष्टामन्यां वा अलब्धपूर्वां संवरसहभाविनीम् ॥९९।। आगे उसीका विस्तारसे कथन करते हैं हे आराधक श्रेष्ठ ! 'शरीर भिन्न है मैं भिन्न हूँ' इत्यादि भेदज्ञानरूप अमृतके सरोवरमें अवगाहन न करनेसे शरीर में आत्मबुद्धि करनेके कारण नरकगति आदिमें अत्यन्त कष्टकारक शारीरिक और मानसिक अशान्ति रूपी आगकी लपटोंसे तुम सन्तप्त हुए ॥९६।। इस समय साधुगण नित्य तुम्हारा उपकार करने में संलग्न हैं तथा तुम्हें आत्मा और शरीरके भेदका भी निश्चय है । ऐसी स्थितिमें तुम्हें दुःख कैसे हो सकता है ॥२७॥ ___अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि आत्मामें शरीरको आरोपित करके अर्थात् अपने शरीरको ही आत्मा मानकर मैं दुःखी हूँ, ऐसा संकल्प करते हैं। और आत्मा तथा शरीरके भेदको जाननेवाले भेदज्ञानी 'शरीर आत्मासे भिन्न है' ऐसा निश्चय करके सुखपूर्वक रहते हैं । अर्थात् अपनी अत्माके दर्शनसे उत्पन्न हुए आनन्दका अनुभव करते हैं ॥९८॥ विशेषार्थ-आगममें भेदभावनाका विचार सुन्दर रीतिसे किया गया है। कहा है-'मेरी मृत्यु नहीं है तब किससे भय । मुझे रोग नहीं तब पीड़ा कहाँ ? न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ, न युवा हूँ। ये सब तो पुदगल शरीरमें हैं। ऐसा विचार करनेसे शारीरिक वेदनामें व्याकुलता नहीं होती और चित्त स्वस्थ रहता है ॥९८॥ अनादि संसारमें परवश होकर तुमने अत्यन्त दुःख सहे। अब इस निकट मृत्युके समय उत्कृष्ट निर्जराकी इच्छासे थोड़ा-सा दुःख अपने अधीन होकर सहो ।।९९।। विशेषार्थ-जो निर्जरा संवरपूर्वक होती है उसे उत्कृष्ट निर्जरा कहते हैं । ऐसी निर्जरा ऐसी ही अवस्थाओंमें होती है। पूर्वबद्ध कर्मोंकी स्थिति पूरी होनेपर तो निर्जरा प्रतिसमय प्रत्येक संसारी जीवके होती है । उससे संसार नहीं कटता ॥१९॥ १. 'न मे मृत्युः कुतो भीतिन मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले' ॥-इष्टोप. श्लो. २९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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