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________________ ३४६ धर्मामृत ( सागार) शुद्धं श्रुतेन स्वात्मानं गृहीत्वार्य स्वसंविदा । भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वैहि निर्वृतिम् ॥१३॥ एहि-गच्छ त्वम् । 'मृत्वैहि' इत्यत्र 'ओमोवीः ' इत्यनेन पररूपम् । उक्तं च 'आराधनोपयुक्तः सन् सम्यक्कालं विधाय च । उत्कर्षात्त्रीन् भवान् गत्वा प्रयाति परिनिर्वृतिम् ॥' [ 1॥९ ॥ संन्यासो निश्चयेनोक्तः स हि निश्चयवादिभिः। यः स्वस्वभावे विन्यासो निर्विकल्पस्य योगिनः॥१४॥ अथ परीषहादिना विक्षिप्यमाणचित्तस्य क्षपकस्य निर्यापकः किं कुर्यादित्याह परीषहोऽथवा कश्चिदुपसर्गो यदा मनः। क्षपकस्य क्षिपेज्ज्ञानसारैः प्रत्याहरेत्तदा ॥१५॥ प्रत्याहरेत्-व्यावर्तयेत् शुद्धस्वात्मोन्मुखं कुर्यादित्यर्थः ॥१५॥ समय चित्तके अशक्त होनेसे समस्त द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्धका स्मरण करना शक्य नहीं है। अतः आयुका अन्त उपस्थित होनेपर मनुष्यका जिस किसी एक वाक्यमें भी अनुराग हो जिनमार्गमें वह त्याज्य नहीं है। अतः मरते समय एक भी श्लोकका चिन्तन करनेवाला यति रत्नत्रयका आराधक होता है' ॥१२॥ हे आर्य ! श्रुतज्ञानके द्वारा राग, द्वेष, मोहसे रहित शुद्ध निज चिद्रपका निश्चय करके, स्वसंवेदनके द्वारा अनुभवन करके और उसीमें लय होनेसे समस्त विकल्पोंको दूर करके अर्थात् निर्विकल्प ध्यानपूर्वक मरण करके मोक्षको प्राप्त करो ॥२३॥ विशेषार्थ-सबसे प्रथम अध्यात्म शास्त्रके द्वारा आत्माके शुद्ध स्वरूपका निर्णय करना चाहिए कि आत्मा समस्त भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्मसे रहित अनन्त ज्ञानादि स्वरूप एक स्वतन्त्र वस्तु तत्त्व है । ऐसा निश्चय करनेके बाद स्वसंवेदनके द्वारा आत्माकी अनुभूति होनी चाहिए। यह आत्मानुभूति ही वास्तवमें सम्यक्त्व है। शुद्धात्माकी अनुभूतिसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। वह होती है उसीमें निर्विकल्प रूपसे लीन होनेसे । इस तरह मरण हो तो उत्कृष्ट से तीन भवमें मुक्ति प्राप्त हो सकती है। ऐसा कहा है ॥२३॥ आगे निश्चय संन्यासके उपदेश द्वारा उक्त कथनका समर्थन करते हैं निर्विकल्पक योगीका शुद्ध चिदानन्दमय स्वात्मामें जो विधिपूर्वक आत्माको स्थित करना है, व्यवहारसापेक्ष निश्चयनयके प्रयोगमें चतुर आचार्योंने उसे हो परमार्थसे संन्यास कहा है ।।९४|| ___ यदि क्षपकका चित्त परीषह आदिसे चंचल हो तो निर्यापकाचार्यको क्या करना चाहिए, यह कहते हैं जब कोई भूख-प्यास आदिकी परीषह अथवा उपसर्ग आराधकके मनको चंचल करे तब आचार्य श्रुतज्ञानके रहस्यपूर्ण उपदेशोंके द्वारा उसे दूर करें अर्थात् उसका उपयोग शुद्ध स्वात्माकी ओर लगावें ॥१५॥ १. 'ओमाङोः-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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