SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ धर्मामृत ( सागार ) इति भद्रम् । इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ( ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां ) सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः । इमामष्टाध्यायी प्रथितसकलश्रावकवृषां निबन्धप्रव्यक्तां समतिरनिशं यो विमशति । स चेद्धर्माभ्यासो दुषितविषयाशाधरपदः समाधित्यक्तासुभंवति हि शिवान्ताभ्युदयभाक् ।। इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामतपञ्जिकायां द्वितीयः श्रावकधर्मस्कन्धः समाप्तः । अत्र श्रावकाचारग्रन्थप्रमाणं समदितमेकोनत्रिशच्छतानि । समाप्ता चेयं धर्मामृतसागारधर्मपञ्जिका । 'साधोर्मेडतवालवंशसुमणेः सज्जैनचूडामणेः, मल्लाख्यस्य सुतः प्रतीतमहिमा श्रीनागदेवोऽभवत् । शुल्कादेषु पदेषु मालवपतिश्रीदेवपालेन यः संप्रीत्याधिकृतः स्वमाश्रितवतः कान्प्रापयन्न श्रियम् ॥ सार्मिकोपकारार्थं तेनैषा ज्ञानदीपिका । लेखयित्वा सरस्वत्या भाण्डागारे न्यधीयत ॥ श्रीवीतरागाय नमः । मंगलमहाश्री ... .... .... ... ... .... .... । की उसी भवमें मुक्ति हो जाती है। दूसरों की क्रमसे मुक्ति होती है। जो चरमशरीरी नहीं होते और सदा ध्यानाभ्यास करते हैं उनके समस्त अशुभ कर्मोका संवर और निर्जरा होती है । तथा प्रतिसमय प्रचुर पुण्य कर्मका आस्रव होता है जिसके प्रभावसे वे कल्पवासी देव होते हैं। वहाँ वह चिरकाल तक देवोंसे सेवित होकर समस्त इन्द्रियोंके लिए आह्लादकारी और मनको प्रसन्न करनेवाले सुखामृतका पान करते हैं। वहाँसे चयकर मनुष्य लोकमें भी चिरकाल तक चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको भोगकर पीछे उसको त्यागकर दिगम्बरी दीक्षा लेते हैं। तथा उत्तम संहननपूर्वक चार प्रकारके शुक्लध्यानके द्वारा आठों कोंको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त करते हैं।' इस प्रकार जो मुनि होकर आराधना करते हैं उनका यह कथन है । जो श्रावक या सम्यग्दृष्टि अन्तिम समयमें मुनिलिंगको धारण करके पंचनमस्कारके स्मरणपर्वक शरीर छोड़ता है वह भी आठ भवोंमें मुक्त होता है। उसके सम्बन्धमें स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-'गर्म जलको भी त्यागकर और शक्ति अनुसार उपवास भी करके मनमें पंचनमस्कारका ध्यान करते हुए शरीर छोड़ना चाहिए' ॥११॥ इस प्रकार पं. आशाधररचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मामृतकी स्वोपज्ञटीकानुसारिणी हिन्दी टीकामें प्रारम्भसे १७वाँ और सागारधर्मकी अपेक्षा आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy