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________________ ३३० धर्मामृत ( सागार) सपर्यया आद्रियते, न च कश्विच्छलाध्यते तदा तस्य यदि शीघ्रं म्रिये तदा भद्रकमित्येवंविधपरिणामोत्पत्ति वा। सुहृदनुरागं-बालैः सह पांशुक्रीडनादेर्व्यसने सहायत्वमुत्सवे संभ्रम इत्येवमादेश्च मित्रसुकृतस्यानुस्मरणं बाल्याद्यवस्थासहक्रीडितमित्रानुस्मरणं वा। सुखानुबन्धं-एवं मया भुक्तमेवं शयितमेवं क्रीडितमित्येवमादि प्रीतिविशेषं प्रति स्मृतिसमन्वाहारम् । अजन्-निराकुर्वन् । निदानं-अस्मात्तपस: सुदुश्चराज्जन्मान्तरे इन्द्रश्चक्रवर्ती धरणेन्द्रो वा स्यामहमित्येवमाद्यनागताभ्युदयाकाङ्क्षाम् । चरेत्-चेष्टेत । सल्लेखना६ विधिना-जन्ममृत्युजरेत्यादिप्राक्प्रबन्धोक्तेन ॥४६॥ अथवं संस्तरारूढस्य क्षपकस्य निर्यापकाचार्य एतत्कृत्वा इदं कुर्यादित्याह यतीन्नियुज्य तत्कृत्ये यथाहं गुणवत्तमान् । सूरिस्तं भूरि संस्कुर्यात् स ह्यार्याणां महाक्रतुः ।।४७॥ तत्कृत्ये-आराधकस्यामर्शनादिशरीरकार्ये विकथानिवारणे धर्मकथायां भक्तपानतल्पशोधनमलोत्सर्जनादौ च । गुणवत्तमान् -मोक्षकारणगुणातिशयशालिनः । उक्तं च 'धर्मप्रियदृढमनसः संविग्ना दोषभीरवो धीराः । छन्दज्ञाः प्रत्ययिनः प्रत्याख्यानप्रयोगज्ञाः ॥ कल्प्याकल्प्ये कुशलाः समाधिमरणोद्यताः श्रुतरहस्याः। अष्टाचत्वारिंशन्निर्यापकसाधवः सुधियः ।।' [ स:-क्षपकसमाधिसाधनविधिः ॥४७॥ १२ शरीर कैसे बना रहे' इस प्रकारकी इच्छा होना। अपना विशेष आदर-सत्कार तथा बहुत-से सेवकों को देखकर, सब लोगोंसे अपनी प्रशंसा सुनकर ऐसा मानना कि चारों प्रकारके आहारका त्याग कर देनेपर भी मेरा जीवित रहना ही उत्तम है यह प्रथम अतिचार है। दूसरा अतिचार है मरनेकी इच्छा। रोग आदिके उपद्रवोंसे व्याकुल होनेसे मरनेके प्रति चित्तका उपयोग लगाना। अथवा जब आहार त्याग देनेपर भी कोई आदर नहीं करता, न कोई प्रशंसा करता है तब यदि मैं शीघ्र मर जाऊँ तो उत्तम है इस प्रकारके परिणाम होना मरणाशंसा नामक दूसरा अतिचार है। बचपनमें साथ-साथ खेलने, कष्टमें सहायक होने, उत्सवोंमें आनन्दित होने आदि, मित्रोंके अनुरागका स्मरण करना तीसरा अतिचार है। मैंने जीवनमें इस प्रकारके भोग भोगे, मैं इस प्रकार सोता था, इस प्रकार क्रीड़ा करता था इत्यादि अनुभूत भोगोंका स्मरण करना सुखानुबन्ध नामका चतुर्थ अतिचार है। इस कठोर तपके प्रभावसे मैं आगामी जन्ममें इन्द्र या चक्रवर्ती या धरणेन्द्र होऊँ, इस प्रकारके अनागत अभ्युदयकी इच्छा निदान नामक पाँचवाँ अतिचार है। इन अतिचारोंसे क्षपकको बचना चाहिए ॥४६॥ इस प्रकार संस्तरेपर आरूढ़ क्षपकके लिए निर्यापकाचार्य क्या करें यह बतलाते हैं निर्यापकाचार्य क्षपकके कार्योंमें यथायोग्य मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी विशेषतासे युक्त साधुओंको नियुक्त करके पुनः उस क्षपकको रत्नत्रयके संस्कारोंसे युक्त करे; क्योंकि क्षपकके समाधिके साधनकी विधि साधुओंका परमयज्ञ है ॥४७॥ विशेषार्थ-आचार्य समन्तभद्रने कहा है कि तपका फल अन्तिम क्रियाको सँभालना है इसलिए पूरी शक्तिसे समाधिमरणमें प्रयत्न करना चाहिए। जो समाधिमरण करता है उसके अनेक कार्य होते हैं, उसके शरीरकी सेवा होनी चाहिए, विकथासे बचाकर धर्मकथा लगाना चाहिए, उसके खान-पान, शय्याको अनुकूल करना, मल-मूत्र कराना आदि अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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