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________________ सप्तदश अध्याय (अष्टम अध्याय) ३२९ अथ निश्चेलसचेलयोमहावतभावनाविशेषमाह-- निर्यापके समर्प्य स्वं भक्त्यारोप्य महावतम् । निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत् ॥४५॥ स्पष्टम् ॥४५॥ अथातिचारपञ्चकपरिहारेण सल्लेखनाविधिना प्रवृत्तिमुपदिशति-- जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबन्धमजन् । सनिदानं संस्तरगश्वरेच्च सल्लेखना विधिना ॥४६॥ जीविताशंसां-शरीरमिदमवश्यं हेयं जलबुबुदवदनित्यमस्यावसानं कथं स्यादित्यादरम् । पूजाविशेषदर्शनात् प्रभूतपरिवारावलोकनात् सर्वलोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं हि मन्यते प्रत्याख्यातचतुर्विधाहारस्यापि मे जीवितमेवाश्रयः यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिवर्तत इत्याकाङ्क्षामिति यावत् । मरणाशंसा-रोगोपद्रवाकूलतया प्राप्तजीवनसंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानम् । यदा न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं प्रति ग्रन्थकारके मतसे विवेक द्रव्यविवेक और भावविवेकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें इन्द्रिय और कषायोंसे 'यह मेरे नहीं है' इस प्रकारके चिन्तनसे दो प्रकारका भावविवेक है । तथा शरीर आहार और सेवकोंसे भिन्न हूँ इस प्रकारका चिन्तन करनेसे द्रव्यविवेक तीन प्रकारका है । कहा है-उपकरण, कषाय, इन्द्रिय, शरीर और भक्तपानके भेदसे पाँच प्रकारका द्रव्य और भावविवेक कहा है। अथवा मतान्तरसे शय्या, संस्तर, शरीर, भोजन-पान और वैयावृत्य करनेवालेके भेदसे विवेक पाँच प्रकारका है ॥४४॥ निर्वस्त्र मुनि और सवस्त्र उत्कृष्ट श्रावककी महाव्रतकी भावनामें भेद बताते हैं वस्त्र आदि समस्त परिग्रहका त्यागी मुनि अपनेको भक्तिपूर्वक निर्यापकाचार्यके अधीन करके और निर्यापकाचार्यके उपदेशसे अपने में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिके भेदसे तेरह प्रकारके चारित्रको भक्तिपूर्वक आरोपित करके बारम्बार मनमें उनका चिन्तन करे। और जो सवस्त्र श्रावक है वह महाव्रतको धारण किये बिना ही महाव्रतका चिन्तन करे ।।४५।। विशेषार्थ-जो संसारसे निकलनेवाले क्षपकको प्रेरणा करता है उसे निर्यापक कहते हैं। छत्तीस गुणोंसे युक्त आचार्य ही निर्यापकाचार्य कहे जाते हैं। उन्हींके संरक्षणमें क्षपक समाधिमरण करता है। समाधिमरणका इच्छुक अपना कुल उत्तरदायित्व उनपर सौंपकर उनकी आज्ञानुसार वर्तन करता है। जो समस्त परिग्रह त्यागमें समर्थ होते हैं वे महाव्रत धारण करके महाव्रतकी भावना भाते हैं और जो ऐसा नहीं कर सकते वे महाव्रत धारण किये बिना ही महाव्रतकी भावना भाते हैं॥४५॥ आगे पाँच अतिचारोंको दूर करते हुए सल्लेखनाकी विधिसे प्रवृत्ति करनेका क्षपकको उपदेश देते हैं संस्तरेपर आरूढ़ हुआ क्षपक जीवनकी इच्छा, मरणकी इच्छा, मित्रानुराग सुखानुबन्ध निदान नामके अतिचारोंको दूर करता हुआ सल्लेखनाकी विधिसे प्रवृत्ति करे ॥४६॥ विशेषार्थ-सल्लेखनाके पाँच अतिचारोंका अर्थ इस प्रकार है-जीनेकी इच्छा-यह शरीर अवश्य हेय है, जलके बुलबुलेके समान अनित्य है, इत्यादि चिन्तन न करके 'यह १. त्यलित्यादिकमस्मरतोऽस्याव-भ. कु. च.। सा.-४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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