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________________ ३२८ धर्मामृत ( सागार) शय्योपध्यालोचनान्नवैयावृत्येषु पञ्चधा । शुद्धिः स्यात् दृष्टिधीवत्तविनयावश्यकेषु वा ॥४३॥ उपधिः-संयमसाधनम् । उक्तं च 'संस्तरण-पान-भोजन-शय्यालोचनयुजां प्रभेदेन । वैयावृत्यकृतामपि शुद्धिः ........................॥' [ 'अथवावश्यकदर्शन......दनचारित्रविनयभेदेन । शुद्धिः पञ्चविकल्पा तां प्राप्य भवार्णवं तरति ॥' [ ] ॥४३॥ अथ शुद्धिवन्मतद्वयेन पञ्चधा विवेकमाह विवेकाऽक्षकषायाङ्गभक्तोपधिषु पञ्चधा। स्याच्छय्योपधिकायान्नवैयावृत्यकरेषु वा ॥४४॥ विवेकः-आत्मनः पृथग्भावाध्यवसायः । उक्तं च . 'उपकरणकषायेन्द्रियवपुषामपि भक्तपानभेदस्य । एष विवेकः कथितः पञ्चविधो द्रव्यभावगतः ।। अथवा शय्यासंस्तरविग्रहपानाशनप्रपञ्चानाम् । वैयावृत्यकृतामपि भवति विवेकोऽयमन्येषाम् ॥' [ ] ॥४४॥ शय्या, उपधि, आलोचना, आहार और वैयावृत्य इन पाँचोंमें प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम पूर्वक प्रवृत्ति रूप पाँच प्रकारकी बाह्य शुद्धि है। तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, विनय और सामायिक आदि छह आवश्यकोंमें निरतिचार प्रवृत्तिरूप पाँच प्रकारकी अन्तरंग शुद्धि है ॥४३॥ विशेषार्थ-निर्दोष प्रवृत्तिका नाम शुद्धि है । शय्या अर्थात् स्थान और संथरा, उपधि अर्थात् संयमके साधन पीछी आदि, आलोचना अर्थात् गुरुसे दोषका निवेदन, चार प्रकारका आहार और वैयावृत्य अर्थात् परिचर्या करनेवालोंके द्वारा किये जानेवाले पैर दबाना आदिमें संयमपूर्वक प्रवृत्ति पाँच प्रकारकी बाह्य शुद्धि है। तथा दर्शन आदि पाँचका निरतिचार पालन करना पाँच प्रकारको अन्तरंग शुद्धि है ॥४३॥ शुद्धिकी तरह दो मतोंसे पाँच प्रकारके विवेकको कहते हैं इन्द्रिय आदिसे आत्माके भिन्न चिन्तन करनेको विवेक कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं। उनमेंसे इन्द्रियोंसे और कषायोंसे आत्माका भिन्न चिन्तन करना ये दो प्रकारका भाव विवेक है । और शरीर, आहार तथा संयमके उपकरणोंसे आत्माके भिन्न चिन्तवन करनेसे तीन प्रकारका द्रव्यविवेक है। इस तरह विवेक पाँच प्रकारका है। दूसरे मतसे, शय्या, उप शरीर, आहार और वैथावृत्य करनेवाले परिचारकोंसे आत्माके भिन्न चिन्तन करनेसे कोई आचार्य विवेकके पाँच भेद कहते हैं ॥४४॥ विशेषार्थ-समाधिमरणके समय उक्त पाँच प्रकारकी शुद्धियाँ और पाँच प्रकारका विवेक आवश्यक है। निर्दोष प्रवृत्तिको शुद्धि और आत्मासे भिन्न चिन्तनको विवेक कहते हैं । समाधिमरणक समय समाधि करनेवालेका सम्बन्ध पाँच वस्तुओंसे रहता है शय्या अर्थात् जिस स्थान पर वह समाधिमरण करता है और जिस संथरे पर वह लिटा है, संयमके उपकरण पीछी कमण्डलु, शरीर, भोजन और सेवा करनेवाले । उनमें भी राग न हो, इसलिए उनसे भिन्न चिन्तन करना विवेक है यह दूसरे मतसे विवेकके पाँच भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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