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________________ इत्यादि । तथा सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) 'न संस्तरो भद्र समाधिसाधनं न लोकपूजा न च सङ्घमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामपि बवाह्य वासनाम् ॥' अथ परद्रव्यग्रहस्य बन्धहेतुत्वात्तत्प्रतिपक्ष भावनामुपदिशतिपरद्रव्यग्रहेणैव यद्बद्धोऽनादिचेतनः । तत्स्वद्रव्यग्रहेणैव मोक्ष्यतेऽतस्तमावहेत् ॥४१॥ स्पष्टम् ॥४१॥ अथ शुद्धिविवेकप्रातिपूर्वकं समाधिमरणं प्रणीतिअलब्धपूर्व किं तेन न लब्धं येन जीवितम् । त्यक्तं समाधिना शुद्धि विवेकं चाप्य पञ्चधा ॥४२॥ स्पष्टम् ॥४२॥ अथ बहिरङ्गान्तरङ्गविषयभेदात्पञ्चधा शुद्धिमाह - Jain Education International विशेषार्थ - मुमुक्षुको शरीरका मोह छोड़ना आवश्यक कहा है ऐसी स्थिति में जिनका शरीर के साथ सम्बन्ध है उनका मोह भी छूटना ही चाहिए। अन्यथा शरीरका मोह छूटा नहीं कहलायेगा । शरीरसे मोह न करे और शरीरसे जिनका सम्बन्ध है उनसे मोह करे, यह तो विपरीत बात है । जाति कुल लिंग आदिको यद्यपि मुक्ति के लिए आवश्यक माना है । मुमुक्षुको समीचीन जाति आदिका होना चाहिए तथा समस्त परिग्रहके त्याग पूर्वक नग्नता होना चाहिए। तथापि इन सबका सीधा सम्बन्ध शरीरसे है । अतः शरीराश्रित लिंगका मोह भी उसी प्रकार नहीं करना चाहिए जैसे शरीरका मोह नहीं किया जाता । पूज्यपाद स्वामीने कहा है- लिंग (नाग्न्य आदि) देहाश्रित होता है और देह ही जीवका संसार है । अतः जो लिंग में आग्रह रखते हैं वे संसारसे नहीं छूटते । इसी तरह जाति भी देहाश्रित है अतः जो जातिका आग्रह रखते हैं वे भी मुक्त नहीं होते । अधिक क्या, ब्राह्मणत्व आदि जातिसे विशिष्ट व्यक्ति दीक्षा लेनेसे मुक्त होता है इस प्रकारका अभिनिवेश रखनेवाले भी मुक्त नहीं होते । अतः समस्त अभिनिवेश हेय है । अमितगति आचार्यने भी कहा है - हे भद्र ! समाधिका साधन न संस्तर है, न लोकपूजा है, न संघ सम्मेलन है । इसलिए सब बाह्य वासनाओंको छोड़कर रात दिन आत्मामें रत रहो ।' ॥४०॥ परद्रव्यका अभिनिवेश बन्धका कारण है । अतः उसके विरोधी भावनाका उपदेश देते हैं क्योंकि परद्रव्य शरीर आदिके ममत्वसे ही चेतन अनादि कालसे परतन्त्रता में पड़ा हुआ है। इसलिए शुद्ध स्वात्मामें रत होनेसे ही छूट सकता है। इसलिए मुमुक्षु उस आत्मलीनताको धारण करे ||४१ || ין ३२७ [ अमि. सा. पा. ] ॥ ४० ॥ शुद्धि और विवेककी प्राप्ति पूर्वक होनेवाले समाधिमरणकी प्रशंसा करते हैं जिसने पाँच प्रकारकी शुद्धि और पाँच प्रकारके विवेकको प्राप्त करके समाधि पूर्वक जीवनको त्यागा, उस महाभव्यने अनादि कालसे अप्राप्त सम्यक्त्व सहचारि महान् अभ्युदय आदि क्या प्राप्त नहीं कर लिया ? अर्थात् सब ही प्राप्त कर लिया ।। ४२ ।। बहिरंग और अन्तरंग विषयके भेदसे पाँच प्रकारकी शुद्धि कहते हैं For Private & Personal Use Only ६ ९ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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